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१०२. रामधम्मसवगविहाणपत्र जो कुणइ सद्दहाणं, जीवाईयाण नवपयत्थाणं । लोइयसुरेसु रहिओ, सम्मट्ठिी उ सो भणिओ ॥ १८१ ॥ संकाइदोसर हिओ, कुणइ तवं सम्मदसणोवाय । इन्दियनिरुद्धपसरं, तं हवइ सया सुचारित्तं ॥ १८२ ॥
जत्थ अहिंसा सच्चं, अदत्तपरिवज्जणं च बभं च । दुविहपरिग्गहविरई, तं हवइ सया सुचारितं ॥ १८३ ॥ विणओ दया य दाणं. सोलं नाणं दमो तहा झाणं । कीरइ नं मोक्खट्टे, तं हवइ सया सुचारित्तं ॥ १८४ ॥ जं एवगणं राहव !. तं चारित्तं जिणेहिं परिकहियं । विवरीय पुण लोए, तं अचरितं मुणेयवं ॥ १८५ ॥ चारित्तेण इमेणं, संजुत्तो दढधिई अणन्नमणो। पुरिसो दुक्खविमोक्खं, करेइ नत्थेत्य संदेहो ॥ १८६ ॥ न दया दमो न सच्चं, न य इन्दियसंवरो न य समाही । न य नाणं न य झाणं, तत्थ उधम्मो को हवइ ? ॥१८७|| हिंसालियचोरिका, इत्थिरई परिगहो जहिं धम्मो । न य सो हवइ पसत्थो, न य दुक्खविमोक्खणं कुणइ ।।१८८।। हिंसालियचोरिका, इत्थिरई परिगहो अबिरई य । कोरइ धम्मनिमित्तं, नियमेण न होइ सो धम्मो ॥१८९ ।। दिक्खं घेत्तण पुणो, छज्जीवनिकायमद्दणं कुणइ । धम्मच्छलेण मूढो, न य सो सिवसोग्गई लहइ ॥ १९० ॥ वह-बन्ध-वेह-तालण-दाहण-छेयाइकम्मनिरयस्स । कय-विक्कयकारिस्स उ, रन्धण-पयणाइसत्तस्स ॥ १९१ ।। पहाणुबट्टण-चन्दण-मल्ला-ऽऽभरणाइभोगतिसियस्स । एवंविहस्स मोक्खो, न कयाइ वि हवइ लिंगिस्स ॥१९२॥ मिच्छादसणनिरओ, अन्नाणी कुणइ नइ वि तवचरणं । तह विय किंकरदेवो, हवइ विसुद्धप्पओगेणं ॥१९३॥ जो पुण सम्मद्दिट्टी, मन्दुच्छाहो वि जिणमयाभिरओ । सत्तट्ट भवे गन्तुं, सिज्झइ सो नत्थि संदेहो ॥ १९४ ॥ उच्छाहदढधिईओ, जो निययं सीलसंजमाउत्तो । दो तिणि भवे गन्तुं, सो लहइ सुहेण परलोयं ॥१९५॥ कोइ पुण भवियसीहो, एक्कभवे भाविऊण सम्मत्तं । धीरो कम्मविसोहिं, काऊण य लहइ निवाणं ॥ १९६ ॥
जाता है। (१८१) सम्यग्दर्शनरूप उपायसे युक्त जो मनुष्य शंका आदि दोषोंसे रहित हो तप करता है और इन्द्रियों के प्रसारका निरोध करता है वह सदा सुचारित्री होता है। (१८२) जहाँ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा बाह्य एवं अभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहसे विरति होती है वह सदा सुचारित्री होता है। (१८३) जो मोक्षके लिए विनय, दया, दान, शील, ज्ञान, दम तथा ध्यान करता है वह सदा सुचारित्री होता है। (१८४) हे राघव! ऐसा जो गुण होता है उसे जिनेश्वरोंने चारित्र कहा है। लोकमें इससे जो विपरीत होता है उसे अचारित्र समझना । (१८५) इस चारित्रसे युक्त, दृढ़मति और एकाग्र चित्तवाला जो पुरुष होता है वह दुःखका नाश करता है, इसमें सन्देह नहीं। (१८६) जहाँ न तो दया है, न दम, न सत्य, न इन्द्रियनिग्रह, न समाधि, न ज्ञान और न ध्यान, वहाँ धर्म कैसे हो सकता है ? (१८७) हिंसा झूठ, चोरी, स्त्री-प्रेम और परिग्रह जहाँ धर्म होता है वह न तो प्रशस्त होता है ओर न दुःखका नाश करता है। (१८८) धर्मके निमित्तसे जो हिंसा, झूठ, चोरी, स्त्रीरति, परिग्रह और अविरति की जाती है वह अवश्यमेव धर्म नहीं है । (१८९) दीक्षा ग्रहण करके जो मूढ़ मनुष्य धर्मके बहाने छः जीवनिकायोंका मर्दन करता है वह मोक्ष जैसी सद्गति नहीं पाता । (१९०) वध, बन्ध, वेध, ताड़न, दाहन, छेदन आदि कर्म में निरत, क्रय-विक्रय करनेवाला, राँधने-पकाने आदिमें आसक्त, स्नान, उबटन, चन्दन, पुष्प, आभरण आदि भोगोंमें तृषित-ऐसे लिंगधारी साधुका कभी मोक्ष नहीं होता। (१६१-२६२) मिथ्यादर्शनमें निरत अज्ञानी जीव यदि विशुद्ध प्रवृत्तिके साथ तपश्चरण करे तो भी वह किकर-देव होता है। (१६३) यदि जिनमतमें अभिरत सम्यग्दृष्टि जीव मन्दोत्साही हो तब भी सात-आठ भवों में वह सिद्धि प्राप्त करता है, इसमें सन्देह नही । (१६४) उत्साह एवं दृढ़ मतिवाला जो व्यक्ति शील एवं संयमसे अवश्य युक्त होता है वह दो-तीन भवोंको बिताकर सुखसे परलोक (मोक्ष) प्राप्त करता है। (१६५) भव्यजनोंमें सिंह जैसा कोई धीर तो एक भवमें ही सम्यक्त्वकी भावनासे भावति और कोकी विशुद्धि
३.
सणो वीओ। इ०-म०।
४.
सरं तह ह.-प्रत्य।
१. • सुईसु र०-मु.। २. रहियं कु०-प्रत्य। ५. ०इकामनि०-प्रत्य०। ६. वीरो-प्रत्य० ।
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