________________
५३२
पउमचरियं
अन्ते सयंभुरमणो, जम्बुद्दीवो उ होइ' मज्झम्मि । सो नोयणाण लक्ख, पमाणओ मण्डलायारो ॥ तस्स वि य हवइ मज्झे, नाहिगिरी मन्दरो सयसहस्सं । सबपमाणेणुच्चो, वित्थिष्णो दससहस्साईं ॥ दाहिणउत्तरभागे, तस्स उ कुलपबया लवणतोयं । उभओ फुसन्ति सबे, कञ्चणवररयणपरिणामा ॥ हिमवो य महाहिमवो, निसढो नीलो य रुप्पि सिहरी य। एएहिं विहत्ताई, सत्तेव हवन्ति वासाई ॥ भरहं हेमवयं पुण, हरिवासं तह महाविदेहं च । रम्मय हेरण्णवयं, उत्तरओ हवइ एरवयं ॥ गङ्गा य पढमसरिया, सिन्धू पुण रोहिया मुणेयबा । तह चेव रोहियंसा, हरी नदी चेव हरिकन्ता ॥ सीया वि य सीओया, नारी य तहेव होइ नरकन्ता । रुप्पयसुवण्णकूला, रचा रत्तावई भणिया ॥ वीसं वक्खारगिरी, चोत्तीस हवन्ति रायहाणीओ । उत्तरदेवकुरूओ, सामलिजम्बूसणाहाओ ॥ जम्बुद्दीवस ठिओ, चउग्गुणो तस्स धायई सण्डो । तस्स वि दुगुणपमाणं, पुक्खरदीवे हवइ अद्धं ॥ पञ्च पञ्च पञ्चसु भरहेरवसु तह विदेहेसु । भणियाउ कम्मभूमी, तीसं पुण भोगभूमीओ ॥ हेमवयं हरिवास, उत्तरकुरु तह य हवइ देवकुरू । रम्मय हेरण्णवयं, एयाओ भोगभूमीओ ॥ आउ-टिई परिमाणं, भोगो मिहुणाण नारिसो होइ । तं सर्व्वं संखेवं भणामि निसुणेहि एगमणो ॥ नागाविहरयणमई, भूमी कप्पहुमेसु य समिद्धा । मिहुणयकयाहिवासा, निच्चुज्जोया मणभिरामा ॥ गिह- जोइ - भूसणङ्गा, भोयण भायण तहेव वत्थङ्गा । चित्तरसा तुडियङ्गा, कुसुमङ्गा दीवियङ्गा य ॥ बहुरयणविणिग्माया, भवणदुमा अट्टभूमिया दिवा । सयणासणसन्निहिया, तेएण निदाहरविसरिसा ॥ नईदुमाण उवरिं, ससि-सूरा जत्थ वच्चमाणा वि । ताण पहावोवहया, निययं पि छविं विमुञ्चन्ति ॥
[ १०२. १०२
१०२ ॥
१०३ ॥
१०४ ॥
Jain Education International
१०५ ॥
१०६ ॥
१०७ ॥
For Private & Personal Use Only
१०८ ॥
१०९ ॥
११० ॥
१११ ॥
११२ ॥
११५ ॥
११६ ॥
११७ ॥ योजन विस्तृत है । (१०२) उसके भी मध्य में नाभिस्थानमें आया हुआ पर्वत मन्दर कुल मिला कर एक लाख योजन ऊँचा और दस हजार योजन विस्तीर्ण है । (१०३) उसके दक्षिण और उत्तर भाग में सोने और सब प्रकारके उत्तम रत्नोंसे युक्त कुलपर्वत दोनों ओर लवणसागर को छूते हैं । (१०४) हिमवान्, महाहिमवान्, निबंध, नील, रुक्मि और शिखरी इन छ: पर्वतों से विभक्त सात ही क्षेत्र होते हैं । (१०५) भरत हैमवत, हरिक्षेत्र तथा महाविदेह, रम्यक, हैरण्यवत और उत्तरमें ऐरावतये सात क्षेत्र हैं । (१०६ पहली नदी गंगा और फिर सिन्धु रोहिता और रोहिदशा, हरि और हरिकान्ता, सीता और तदा नारी और नरकान्ता, रूप्यककूला और सुवर्णकूला तथा रक्ता और रक्तवती - ये महानदियाँ कही गई हैं । (१०७८) ate वक्षस्कार पर्वत, चौतीस राजधानियाँ और शाल्मलि एवं जम्बूवृक्षोंसे युक्त उत्तरकुरु और देवकुरु नामके क्षेत्र होते हैं । (१०)
११३ ॥
११४ ॥
जम्बूद्वीप जितना है उससे चारगुना बड़ा धातकी खण्ड होता है और उससे भी दुगुने परिमाणका आधा पुष्करद्वीप होता है । (११०) पाँच पाँच ऐरावत और पाँच विदेह - कुल मिलाकर पन्द्रह कर्मभूमियाँ तथा तीस भोगभूमियाँ होती है । (१११) हैमवत, हरिवर्ष, उत्तरकुरु एवं देवकुरु, रम्यक और हैरण्यवत ये भोगभूमियाँ हैं । (११२)
युगलिका आयुष्य, स्थिति, परिमाण तथा भोग जैसा होता है वह सब मैं संक्षेपसे कहता हूँ । तुम ध्यानसे सुनो । ( ११३) नानाविध रत्नोंसे युक्त भूमि कल्पवृक्षोंसे समृद्ध होती है । युगलिकोंके लिए बनाये गये निवास नित्य प्रकाशित और सुन्दर होते हैं । (११४) गृहांग, ज्योतिरंग, भूषणांग, भोजनांग, वखांग, चित्ररसांग, त्रुटितांग, कुसुमांग तथा दिव्यांग — ये दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं । (११५) वहाँ अनेक प्रकारके रत्नोंसे निर्मित आठ मंज़िलवाले दिव्य भवनद्रुम होते हैं । शयनासनसे युक्त वे तेजमें निदाघकालीन सूर्यके सदृश होते हैं । (११६) ज्योतिद्रुमोंके ऊपर चन्द्र और सूर्य विद्यमान होने पर भी उन द्रुमोंके प्रभावसे तिरस्कृत होकर वे अपनी कान्ति छोड़ देते हैं । (११७) उत्तम हार, कटक, कुण्डल,
१. हवइ - ० । २. हरी लई हवइ हरे- प्रत्य० । ३. निमुणेह एगमणा – मु० ।
www.jainelibrary.org