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१०२. रामधम्मसवणविहाणपव्वं रयणप्पभाऍ भागे, उवरिल्ले भवणवासिया देवा । असुरा नाग सुवण्णा, वाउसमुद्दा दिसिकुमारा ॥ दीवा विज्जू थणिया, अग्गिकुमारा य होन्ति नायबा । भुञ्जन्ति विसयसोक्खं, एए देवीण मज्झगया ॥ चउसट्टी चुलसीई, बावतरि तह य हवइ छन्नउई । छावत्तरि मो लक्खा, सेसाणं हवइ छण्हं पि ॥ एएय भवणेसु य, देवा संगीयवाइयरवेणं । निच्चं सुहियपमुइया, गयं पि कालं न याणन्ति ॥ ९० ॥ ताणं अणन्तरोवर, दीवसमुद्दा भवे असंखेज्जा । जम्बुद्दीवादीया, एते उ सयंभुरमणन्ता ॥ ९१ ॥ एए वसन्ति सुरा, किन्नर - किंपुरिस - गरुड-गन्धवा । नक्खा भूयपिसाया, कीलन्ति य रक्खसा मुइया ॥ ९२ ॥ पुढवि. नल-जल - मारुय-वणस्सई चेव थावरा एए । काया एक्को य पुणो, हवइ तओ पञ्चभेयजुओ ॥ ९३ ॥ इन्दियाउ नाव उ, जीवा पञ्चिन्दिया मुणेयधा । फरिस - रस- गन्ध चक्खू सोउवओगा बहुवियप्पा ॥ दुविहा थावरकाया, हुमा तह बायरा यं नायबा । उभओ वि होन्ति दुविहा, पज्जत्ता तह अपज्जता ॥ “नीवाणं उवओोगो, नाणं तह दंसणं निणक्खायें | नाणं अट्टवियप्पं, चउबिहं दंसणं भणियं ॥ अण्डाउय- पोयाउय - नराउया गब्भना इमे भणिया । 'सुर-णार ओववाइय, सेसा समुच्छिना जीवा ॥ ओरालियं विउ, आहारं तेजसं च कम्मइयं । सुहुमं परंपराए, गुणेहि संपज्जइ सरीरं ॥ धम्मा-ऽधम्मा-ऽऽगासं, कालो जीवो य पोग्गलेण समं । एयं तु हवइ दधं, छन्भेयं सत्तभङ्गजुयं एयं दद्दविसेसो, नरवइ ! कहिओ मए समासेणं । निसुणेहि भणिज्जन्तं, दीवसमुद्दाण संखेवं ॥ १०० ॥ जम्बुद्दीवाईया, दीवा लवणाइया य सलिलनिही । एगन्तरिया ते पुण, दुगुणा दुगुणा असंखेज्जा ॥ १०१ ॥
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रत्नप्रभाके ऊपर के भागमें भवनवासी असुर, नाग, सुपर्ण, वायुकुमार, समुद्रकुमार, दिक्कुमार द्वीपकुमार, विद्युत्कुमार, स्तनितकुमार और अग्निकुमार ये दस प्रकार के देव रहते हैं। देवियोंके बीचमें रहे हुए वे विषय सुखका उपभोग करते हैं। (८७-८८) इनमें से पहले चार के क्रमशः चौसठ लाख, चौरासी लाख, बहत्तर लाख, और छिआनवे लाख तथा बाकी के छोंके (प्रत्येक के ) छिहत्तर लाख भवन होते हैं । (८) इन भवनों में देव गाने-बजानेकी ध्वनिसे नित्य सुखी व प्रमुदित रहते हैं और बीते समय को भी नहीं जानते । (६०)
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उनके एकदम ऊपर जम्बूद्वीप से लेकर स्वयम्भूरमण तक असंख्येय द्वीप - समुद्र आये हैं । (९१) इनमें किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व, यक्ष, भूत, पिशाच और राक्षस आनन्दके साथ कीड़ा करते हैं । (२) पृथ्वीकाय, जलकाय, निकाय, वायुका और वनस्पतिकाय - ये पाँच प्रकार के स्थावर काय एकेन्द्रिय जीव होते हैं । (६३) एकेन्द्रिय से लेकर स्पर्शनेन्द्रिय, जिहूवेन्द्रिय, प्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय तथा श्रोत्रेन्द्रियसे युक्त विविध प्रकारके पंचेन्द्रिय जीवों को जानो । (६४) दो प्रकारके स्थावर काय ज्ञातव्य हैं: सूक्ष्म और बादर। दोनों भी दो प्रकार के होते हैं: पर्याप्त और अपर्याप्त । (६५) जिन द्वारा कहा गया जीवों का उपयोग भी दो प्रकारका है : ज्ञान और दर्शन । चार प्रकारका कहा गया है । (६६) अण्डज, जरायुज तथा पोतज इन तीन प्रकारके प्राणियों का गर्भज जन्म होता है । देव और नारक जीवों का उपपात जन्म होता है। शेष जीव सम्मूद्दिम होते हैं । (६७) औदारिक, वैक्रयिक, आहारक, तेजस और कार्मण-ये पाँच प्रकारके शरीर क्रमशः सूक्ष्म होते हैं और गुणोंसे प्राप्त होते हैं । (६८) धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव और पुद्गल ये छः प्रकारके द्रव्य नैगम आदि सात भंगोंसे युक्त होते हैं । (६६)
ज्ञान आठ प्रकारका तथा दर्शन
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हे राजन् ! उसे तुम सुनो । (१००) दुगुने दुगुने हैं । (१०१)
१. उ— प्रत्य० । २. सुर-नारय उजवाया, इमे य सम्मु०
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इस तरह खास खास द्रव्य मैंने संक्षेपसे कहे । अब मैं संक्षेप में द्वीप समुद्रोंके बारेमें कहता हूँ । जम्बू द्वीप आदि द्वीप और लवण आदि समुद्र एकके बाद एक असंख्येय हैं । वे विस्तारमें अन्तमें स्वयम्भूरमण समुद्र है । बीच में जम्बूद्वीप है । यह मण्डलाकार और एक लाख
३. ० ज्जन्ता दीव-समुद्दा उ सं०-मुः ।
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मु० ।
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