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१०२. रामधम्मसवर्णाविहाणपव्वं
६५ ॥
६६ ।।
६७ ॥
मेरुगिरिस्से अहत्या, सरोव हवन्ति नरवपुवोओ। रयणप्पहाझ्याओ, जीवाणं दुक्खणणीओ ॥ रयणप्यभाव सकर-वाय पडण्यभा य भूगपमा एतो तमा तमतमा, सतमिया हवइ अइघोरा ।। तीसा य पनवीसा, पारस दस देव होन्तिं णायवा तिष्कं पञ्चूर्ण, पञ्चेव अणुतरा नरया ॥ एए चउरासीई, लक्खा सीमन्तयाइया घोरा खर-फरस-चण्डवाया, ससि-सूरविवज्जिया भीमा ।। दसंतिगअहिया एक्काहिया य नव सत्त पञ्च तिण्णेक्का । नरइंदए कमो खलु, ओसरमाणो उ रयणाए ॥ ६९ ॥ अउणावन्नं नरया, सेढी सीमन्तयस्स पुबेणं । चउसु वि दिसासु एवं, अट्टहं चेव परिहाणी ॥ ७० ॥ चचालीसहिया, सत्त य छप्पञ्च तह य चचारि अवसरमाणा व पुणो, जाव मिय अप्पाणो ॥ ७१ ॥
६८ ।।
मेरुपर्वतके नीचे जीवोंके लिए दुःखजनक रनप्रभा आदि नरकभूमियाँ आई हैं। (६५) रत्नप्रभा, शर्करा प्रभा वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा तथा तमस्तमः प्रभा - ये सात अतिभयंकर नरक हैं । (६६) तीस लाख, पचीस लाख, पन्द्रह लाख, दस लाख, तीन लाख, एक लाख, एक लाखमें पाँच कम और पाँचवे क्रमशः नरक योनियों है । (६७) सीमान्तक आदि ये चौरासी लाख नरकावास घोर, तीक्ष्ण, कठोर व प्रचण्ड वायुवाले, चन्द्र एवं सूर्य से रहित और भयंकर होते हैं। (६८) तेरह, ग्यारह, नौ, सात, पाँच, तीन, और एक- इस प्रकार रत्नप्रभासे क्रमशः घटते हुए नरकेन्द्रक (मुख्य नरकावास ) होते हैं । (६९) सीमान्तककी पूर्वं दिशामें ४६ नरक आये हैं। इसी प्रकार चारों दिशाओं में हैं । प्रत्येक प्रतर में आठ-आठकी कमी होती जाती है। (७०) अड़तालीस, सैंतालीस, छयालीस, पैंतालीस, चवालीस इस प्रकार अप्रतिष्ठान तक वे घटते जाते हैं । (७१) ये नरक तपाये दुए लोहेके समान स्पर्शवाले, दुर्गन्धसे भरे हुए, वज्रकी बनी हुई सूइयोंसे व्याप्त ज़मीनकी भाँति
१. ० रस व हिट्ठा स० - प्रत्य० । २. • न्ति नरकाउ । ति० मु० ।
३. गाथा ६९, ७० तथा ७१ अत्यन्त अस्पष्ट होने से उनमें आये हुए विषयका स्पष्ट ख्याल नहीं आता; अतः मलधारी श्रीचन्द्रसूरिकृत संघदणीप्रकरणमेवे नीचे तीन गाथाएँ उद्धृत की जाती हैं, जिससे उपर्युक गाथाओं में भाया हुआ विषय भलीभाँति अवगत हो सके
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तेरह, ग्यारह, नौ, सात, पाँच, मध्यवर्ती नरकावागोंको नरकेन्द्रफ कहते हैं।
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तेरि-क्कारस- नव-सग-पण-तिनि-ग-पयर सव्विगुणवन्ना । सीमन्ताई अप्पइठाणंता इंदया मज्झे ॥ १७३ ॥ तीन और एक- इस प्रकार कुल
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तेर्हितो दिसि विदिसि विणिग्गया अडू नरयआवलिया ।
पढमे पयरे दिसि इगुणवन्न विदिसासु अडयाला ॥ १७४ ॥ बिवाईस पयरे इमेगडीपाठ होंति
जा सीमन्तयपयरे दिसि इक्किको विदिसि
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मिलाकर ४९ प्रतर होते हैं। सीमान्तकसे लेकर अप्रतिष्ठान तकके
सीमान्तक आदि इन्द्रक-नरकावासों की दिशा और विदिशामें मिलकर नरककी आठ श्रेणियों होती हैं। प्रथम प्रतर में दिशा में बाई हुई इस श्रेणौकी संख्या ४९ की है और विदिशामें ४८ की। इस श्रेणीमें रहे हुए नरकों के आवासोंको नरकावास कहते हैं ।
पंसीओ। नत्थि ॥ १७५ ॥
दूसरे आदि प्रतर में ( प्रत्येक प्रतरमें अनुक्रमसे) दिशामें तथा विदिशामें आई अर्थात् आठ दिशाओंमें आठ-आठ नरकावास कम होते जाते हैं इस प्रकार दूसरे प्रतरकी इसी कमसे घटते पटते सातवें नरकके अन्तिम प्रतर ( उसमें एक ही प्रतर होता है) में एक भी नहीं रहता । अन्तिम अप्रतिष्ठान प्रतरमें एक इन्द्रक नरकावास तथा चार दिशाओंमें चार नरकावास — इस प्रकार कुल मिलाकर पाँच नरकावास होते हैं । इस अप्रतिष्टान नरकेन्द्रकका चारों दिशाओंसें आये हुए नरकावासोंके नाम इस प्रकार हैं
दक्षिण दिशा रोर उत्तर दिशा महारोर
पूर्व दिशा काल पश्चिम दिशा महाकाल
हुई वेगियों में एक एक संख्या कम होती जाती है; दिशामें ४८ और विदिशामें ४७ नरकावास आए हैं। दिशामें एक नरकावास रहता है, जबकि विदिशामें तो
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