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५२८ पउमचरियं
[१०२.५० गोसीसचन्दणाइसु, 'आसत्थो राहवो निरिक्खेइ । सीयं अपेच्छमाणो, रुटो आरुहइ मत्तगयं ॥ ५० ॥ ऊसियसियायवतो. सललियधुवन्तचामराजुयलो । परिवारिओ भडेहिं. नजइ इन्दो ब देवेहिं ॥ ५१ ।। अह भाणिउ पयत्तो, मह घरिणी विमलसुद्धचारिता । देवेहि पाडिहेरं. किं व कयं एत्थ वि सढेहिं ! ॥५२॥ सीय विलुत्तकेसि, जइ देवा मह लहुं न अप्पेन्ति । देवाण अदेवत्तं करेमि सिग्घं न संदेहो ॥ ५३ ।। को इच्छइ मरिउ जे ! कस्स कयन्तेण सुमरियं अजं । जो मज्झ हिययइट्ट, धरेइ पुरिसो तिहुयणम्मि ॥५४॥ नइ वि य विलुत्तकेसी, अज्जाणं तत्थ मज्झयारत्था । तह वि य आणेमि लहुं, वइदेहिं संगयसरीरं ॥ ५५ ॥ एयाणि य अन्नाणि य, जंपन्तो लक्खणेण उवसमिओ। पउमो नरवइसहिओ. साहसयासं समणुपत्तो ॥ ५६ ॥ सरयरविसरिसतेयं, दट्टणं सयलभूसणं रामो। ओयरिय गयवराओ. पणमइ तं चेव तिविहेणं ॥ ५७ ॥ पउमो पुत्तेहिं समं, उवविट्ठो, मुणिवरस्स आसन्ने । चन्दा-ऽऽइच्चसमग्गो, सुराण ईसो इव जिणस्स ॥ ५८ ।। अन्ने वि नरवरिन्दा, लच्छीहरमाइया जिणं नमिउं ।. उवविट्ठा धरणियले, पुवनिविटेसु देवेसु ॥ ५९ ॥ आहरणवजिया वि य, सियवत्थनियंसणी जणयधूया । अजाहि समं रेहइ, तारासु व सयलससिलेहा ॥ ६ ॥ सुर-मणुय-खेयरेहिं, उवविद्वेहिं तओ सयलनाणी। सिस्सेण पुच्छिओ सो, निणधम्मं अभयसेणेणं ।। ६१ ॥ विउलं निउणं च तहा, तच्चत्थं सुहनिबोहणं धम्मं । साहेइ मुणिवरिन्दो, जलहरगम्भोरनिग्घोसो ॥ ६२ ॥ एत्थ अणन्ताणन्ते, आगासे सासओ सहावत्थो। लोगो तिभेयभिन्नो, हवइ चिय तालसंठाणो । ६३ ।।
वेत्तासणयसरिच्छो, अहलोगो चेव होइ नायबो। झल्लरिनिहो य मज्झे, उवरिं पुण मुरवसंठाणो ।। ६४ ॥ शमित पापवाली सीता पाँच महाव्रतोंको धारण करनेवाली साध्वी हई। प्रमुख साध्वीके साथ वह मुनिके चरणोंमें गई । (४६)
गोशीर्षचन्दन आदिसे होशमें आये हुए राम देखने लगे और सीताको न देखकर रुष्ट वे मत्त हाथी पर सवार हुए। (५०) सफेद छत्र ऊपर धरे हुए, लीला के साथ दो चँवर डोले जाते तथा सुभटोंसे घिरे हुए राम देवोंसे युक्त इन्द्रकी भाँति मालूम होते थे। (५१) वे कहने लगे कि मेरी पत्नी विशुद्ध शील एवं चारित्रवाली है। यहाँ धूर्त देव प्रातिहार्य-कर्म कसा करते हैं ? (५२) यदि देव विलुप्त केशवाली सीताको जल्दी नहीं ला देते तो मैं देवों को अदेव बना दूंगा, इसमें सन्देह नहीं। (५३) कौन मरना चाहता है ? आज किसको यमने याद किया है ? तीनों लोकमें ऐसा कौन पुरुष है जो मेरी हृदय प्रिया सीताको रख सकता है ? (५४) यदि विलुप्तकेशी वैदेही साध्वियोंके बीचमें भी हो तो भी उसे सशरीर जल्दी ही ले आओ (५५) इस तरह तथा अन्य बहुत प्रकारसे बोलते हए रामको लक्ष्मणने शान्त किया। फिर राजाओंके साथ राम साधुकं पास गये । (५६) शरत्कालीन सूर्य के समान तेजवाले सकलभूषण मुनिको देखकर राम हाथी परसे नीचे उतरे और मन-वचन-काया तीनों प्रकारसे उन्हें प्रणाम किया.। (५७) पुत्रों के साथ राम जिस तरह चन्द्र और सूर्यके साथ इन्द्र जिनेश्वरके पास बैठता है उस तरह, मुनिवरके पास बैठे। (२८) लक्ष्मण आदि दसरे राजा भी जिनेश्वरको नमस्कार करके पहलेसे बैठे हुए देवकि पास जमीन पर जा बैठे। (५६) आभषणोंसे रहित होने पर भी श्वेत वस्त्र धारण करनेवाली सीता आर्याओंके साथ ताराओं में पूर्णिमाकी कलाकी भाँति शोभित हो रही थी। (६०)
देव, मनुष्य तथा विद्याधरोंके बैठ जाने पर अभयसेन नामक शिष्यने सर्वज्ञ मुनिसे जिन धर्म के बारेमें पूछा । (६१) जलधरके समान गम्भीर निर्घोष करनेवाले मुनिवरेन्द्र ने विपुल अर्थवाले, कुरालकारी, यथार्थ और सुखपूर्वक समझमें आ जाय ऐसे धर्मका उपदेश दिया (६२)
इस अनन्तानन्त श्राकाशमें शाश्वत, स्वभावस्थ, स्वर्ग, नरक और मध्यलोकरूप तीन भेदोंसे भिन्न तथा तालके समान संस्थानवाला लोक आया है। (६३) वेत्रासनके समान अधोलोक भालरके समान मध्यलोक तथा मुरजके समान संस्थानवाला ऊपरका लोक (स्वर्ग) जानना चाहिए। (६४)
१. आस(सि )तो-प्रत्य।
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