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पउमचरिय
२३ ॥ २४ ॥
२५ ॥
सा एव नंपिऊर्ण, तओ पविट्ठाऽलणं नणयधूया । नायं जलं सुविमलं सुद्धा दढसीलसंपत्ता ॥ १८ ॥ न य दारुयाणि न तणं, न य हुयवहसन्तिया य इङ्गाला । नवरं आलोइज्जइ, बावी सच्छच्छनलभरिया ॥ १९ ॥ भेत्तृण धरणिवहूं, उच्छलियं तं जलं गुलगुलेन्तं । वियडगभीरावत्तं, संघट्टुट्टेन्तफेणोहं ॥ २० ॥ झगझगझगति कत्थइ, अन्नत्तो दिलिदिलिन्तसद्दालं । पवहइ नलं सुभीमं उम्मम्गपयट्टकल्लोलं ॥ २१ ॥ नाव य खणन्तरेकं ताब चिय खुहियसागरसमाणं । सलिलं कडिप्पमाणं, नायं च तओ थणाणुवरिं ॥ २२ ॥ सलिलेण तओ लोगो, सिग्धं चिय वुब्भिउं समाढतो । विज्जाहरा वि सबे, उप्पइया नहयलं तुरिया || वरसिप्पिएस विकया, संखुभिया तत्थ मञ्चसंघाया । ताहे नणो निरासो, वुब्भंतो विलविउँ पत्तो ॥ हा देवि ! हा सरस्सइ !, परितायसु धम्मवच्छले ! लोगं । उदएण वुज्झमाणं, सबालवुड्डाउलं दीणं ॥ दट्ठण हीरमाणं, लोयं ताहे करेसु नणयसुया । सलिलं फुसइ पसन्नं जायं वावोसमं सहसा ॥ २६ ॥ ववगयसलिलभओ सो, सबो वि नणो सुमाणसो वाविं । पेच्छइ विमलनलोहं, णीलुप्पलभरियकूलयलं ॥ २७ ॥ सुरहिसयवत्तकेसर- निलीणगुञ्जन्तमहुयरुग्गीयं 1 चक्काय- हंस-सारस-नाणाविहस उणगणकलियं ॥ २८ ॥ मणिकञ्चणसोवाणं, तीए वावीऍ मज्झयारत्थं । पउमं सहस्सवत्तं, तस्स वि सीहासणं उवरिं ॥ २९ ॥ दिबं सुयपरिछन्ने, तत्थ उ सोहासणे सुहनिविट्ठां । रेहइ नणयनिवसुया, पउमद्दहवासिणि ब सिरी ॥ ३० ॥ "देवेहि तक्खणं चिय, विज्जिज्जइ चामरेहिं दिबेहिं । गयणाउ कुसुमबुट्टी, मुक्का य सुरेहिं तुट्ठेहिं ॥ सीयाऍ सीलनिहसं, पसंसमाणा सुरा नहयलत्था । नच्चन्ति य गायन्ति य, साहुकारं विमुञ्चन्ता ॥ ३२ ॥ गयणे समाहयाई, तूराई सुरगणेहिं विविहारं । सद्देण सयललोयं, नज्जइ आवूरयन्ताई ॥ ३३ ॥
३१ ॥
वह शुद्ध और दृढ़शीलसे सम्पन्न थी, अतः आग निर्मल जल हो गई । (१८) न तो लकड़ी, न तृण और न आग के अंगारे वहाँ दीखते थे । वह बावड़ी स्वच्छ निर्मल जल से भर गई । (१९) पृथ्वीका तला फोड़कर कल कल आवाज करता हुआ, भयंकर और गंभीर आवतसे युक्त तथा टकरानेसे उठनेवाली फेनसे व्याप्त जल उछलने लगा । (२०) कहीं भाग-भ शब्द करता हुआ, दूसरी जगह दिल-दिल जैसी आवाज करता हुआ अत्यन्त भयंकर और उन्मार्गकी ओर प्रवृत्त तरंगोंसे युक्त जल बहने लगा । (२१) थोड़ी ही देर में तो क्षुब्ध सागरके जैसा पानी सीताकी कमर तक आ गया। फिर स्तनोंके ऊपर तक बढ़ गया । (२२) उस समय सब लोग पानीमें एकदम डूबने लगे और सब विद्याधर भी तुरन्त आकाशमें उड़ गये (२३) उत्तम शिल्पियों द्वारा कृत मोंके समूह संक्षुब्ध हो गये । तब निराश होकर डूबते हुए लोग विलाप करने लगे कि, हा देवी ! हासरस्वती ! हा धर्मवत्सले जलमें डूबते हुए बालक और बुड्ढों से युक्त दीन लोगोंको बचाओ। (२४-२५) तब लोगोंको बहते देख सीताने निर्मल जलको हाथसे छूआ । वह सहसा बावड़ी जितना हो गया । (२६)
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पानी का भय दूर होने पर मनमें प्रसन्न सब लोगोंने निर्मल जलसे पूर्ण और किनारे तक नील कमलोंसे भरी हुई उस बावड़ीको देखा । (२७) सुगन्धित कमलों के केसरमें लीन होकर गूँजते हुए भौरोंके गीतसे युक्त, चक्रवाक, हंस, सारस आदि नानाविध पक्षियोंके समूहसे सम्पन्न तथा मणि एवं कांचनकी सीढ़ियोंवाली उस बावड़ी के बीच एक सहस्रदल कमल था । उसके ऊपर भी एक सिंहासन था । ( २८-२६) दिव्य वस्त्रसे आच्छादित उस सिंहासन पर सुखपूर्वक बैठी हुई सीता पद्म सरोवरमें रहने वाली लक्ष्मी जैसी शोभित होती थी । (३०) तत्क्षण देव-दिव्य चामर डोलने लगे। आनन्द में आये हुए देवोंने आकाशमें से पुष्पवृष्टि की। (३१) सीता के शीलकी कसौटी की प्रशंसा करते हुए आकाशस्थ देव साम्यवाद कहते कहते नाचने और गाने लगे । (३२) देवगणोंने आकाशमें विविध वाद्य बजाये । उस समय सारा लोक मानों शब्दसे भर गया
२. ० संपन्ना प्रत्य० । ५. देवीहिं – मु० ।
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२. ० पलोह ० - प्रत्य• । ३. ० तो लविउमादत्तो - मु० । ४. ०हं कमलुप्पल० मु० ।
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