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१०२. ४६]
१०२. रामधम्मसवणविहाणपव्वं विजाहरा य मणुया, नच्चन्ता उल्लवन्ति परितुट्ठा । सिरिजणयरामधूया, सुद्धा दित्ताणले सीया ॥ ३४ ॥
एयन्तरे कुमारा. लवं-ऽकुसा नेहनिब्भराऽऽगन्तुं । पणमन्ति निययजणणिं, ते वि सिरे तीऍ अग्घाया ॥ ३५॥ • रामो वि पेच्छिऊणं, कमलसिरिं चेव अत्तणो महिलं । जंपइ समीवसंथो, मज्झ पिए । सुणसु वयणमिणं ॥३६॥ एयारिसं अकज, न पुणो काहामि तुज्झ ससिवयणे ! । सुन्दरि! पसन्नहियया, होहि महं खमसु दुचरियं ॥३७॥ महिलाण सहस्साई, अट्ट मर्म ताण उत्तमा भद्दे ! । अणुहवसु विसयसोक्खं, मज्झ वि आणं तुम देन्ती ॥३८॥ पुप्फविमाणारूढा, खेयरजुवतीसु परिमिया कन्ते ! । वन्दसु जिणभवणाई, मए समं मन्दरादीणि ॥ ३९ ।। बहुदोसस्स मह पिए !, कोवं मोत्तण खमसु दुच्चरियं । अणुहवसु सलाहणियं, सुरलोयसमं विसयसोक्खं ॥४०॥ तो भणइ पई सीया, नरवइ ! मा होहि एव उबिग्गो । न य कस्सइ रुट्टा है, एरिसयं अज्जियं पुर्व ॥ ४१ ॥ न य देव! तुज्झ रुट्टा, न चेव लोयस्स अलियबाइस्स । पुवज्जियस्स राहव !, रुट्टा हं निययकम्मस्स ॥ ४२ ॥ तुज्झ पसाएण पह, भुत्ता भोया सुरोवमा विविहा । संपइ करेमि कम्मं, ते जेण न होमि पुण महिला ॥४३॥ इन्दधणु-फेणबुब्बुयसमेसु भोएसु दुरभिगन्धेसु । किं एएसु महाजस, कीरइ बहुदुक्खजणएसु ॥ ४४ ।। बहुजोणिसयसहस्सा, परिहिण्डन्ती अहं सुपरिसन्ता । इच्छामि दुक्खमोक्खं, संपइ जिणदेसियं दिक्खं ॥४५॥ एव भणिऊण सीया, अहिणवसोहा करेण वरकेसे । उप्पाडइ निययसिरे, परिचत्तपरिग्गहारम्भा ॥ ४६॥ मरगयभिङ्गङ्गनिभे, केसे ते पेच्छिऊण पउमाभो । मुच्छानिमोलियच्छो, पडिओ धरणीयले सहसा ।। ४७ ।। जाव य आसासिज्जइ, पउमाभो चन्दणाइदबे हिं । ताव य मुणिसवगुत्तो, दिक्खिय अजाणमप्पेइ ॥ ४८ ॥
नाया महबयधरी, चत्तेकपरिग्गहा समियपावा । मयहरियाएँ समाणं, गया य मुणिपायमूलम्मि ॥ ४९ ॥ हो ऐसा प्रतीत होता था। (३३) आनन्दमें आकर नाचते हुए विद्याधर और मनुष्य कहते थे कि श्रीजनकराजकी पुत्री सीता प्रदीप्त अग्निमें शुद्ध हुई है। (३४) तब स्नेहसे भरे हुए लवण और अंकुश कुमारोंने भी आकर अपनी माताको प्रणाम किया। उनके सिरको उसने सूंघा । (३५) अपनी पत्नीको कमलश्री ( लक्ष्मीकी) तरह देखकर समीपस्थ रामने कहा कि,
प्रिये ! मेरा यह कथन सुन । (३६) हे शशिवदने ! ऐसा अकार्य मैं तुझ पर फिर कभी नहीं करूँगा। हे सुन्दरी ! तू मनमें प्रसन्न हो और मेरा अपराध क्षमा कर । (३७) हे भद्रे! मेरी आठ हज़ार पत्नियाँ हैं। उनमें तू उत्तम है। मुझको भी आज्ञा देती हुई तू विषय सुखका अनुभव कर । (३८) हे कान्ते ! खेचर युवतियोंसे घिरी हुई तू मेरे साथ पुष्पक विमानमें आरूढ़ होकर मन्दर आदि जिनभवनोंको वन्दन कर । (३६) हे प्रिये ! बहुत दोषवाले मेरे दुश्चरितको तू क्रोधका परित्याग कर क्षमाकर और देवलोक जैसे श्लाघनीय विषयसुखका अनुभव कर । (४०)
इस पर सीताने पतिसे कहा कि, हे राजन् ! इस तरह आप उद्विग्न न हों मैं किसी पर रुष्ट नहीं हूँ। मैंने पूर्वजन्ममें ऐसा ही कर्म बाँधा होगा। (४१) हे देव ! मैं न तो आप पर रष्ट हुई हूँ और न झूठ बोलनेवाले लोगों पर ही। हेराघव ! मैं तो पूर्व के कमाये हुए अपने कर्म पर रुष्ट हुई हूँ। (४२) हे प्रभो! आपके अनुग्रहसे देव सरीखे विविध भोग मैंने भोगे हैं। अब मैं ऐसा कर्म करूँगी जिससे पुनः स्त्री न होऊँ। (४३) हे महायश ! इन्द्रधनुष, फेन और बुलबुले के समान क्षणभंगुर, खराब गन्धवाले और बहुतसे दुःखोंके उत्पादक इन भोगोंसे क्या प्रयोजन है ? (४४) अनेक लाख योनियोंमें घुमनेसे थकी हुई में अब दुःखनाशरूप जिनप्रोक्त दीक्षा लेना चाहती हूँ। (४५) ऐसा कहकर अभिनव शोभावाली सीताने परिग्रह और आरम्भका परित्याग करके हाथसे अपने सिर परके सुन्दर केश उखाड़ डाले। (४६) मरकत और भौरेके शरीर सरीखे काले उन बालोंको देखकर मूछोंके कारण बन्द आँखोंवाले राम सहसा पृथ्वी पर गिर पड़े। (४७) जबतक राम चन्दन आदि द्रव्यों से आश्वस्त हुए तब तक तो मुनि सर्वगुप्तने आर्या को दीक्षा दे दी। (४८) सब परिग्रहोंका त्याग करके
१. वसोया क.-प्रत्य।
तो पूर्व के कुमारसा कर्म करूँगी जित दुःखोंके उत्प
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