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पउमचरियं
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महिलारूवेण तओ, भिक्खं घेतूण निग्गया हारं । सा बन्धइ तस्स गले, भणइ य समणो इमो चोरो एए अन्ने य बहू, उवसग्गे, कुणइ तस्स सा पावा । पुणरवि महिन्दउदयट्टियस्स समणस्स संपता ॥ बेयालेसु गएसु य, सीहेसु य भीसणोरगसएसु । महिलासु य उवसग्गं, सा तस्स करेइ अइचण्डा ॥ सुय अन्नेय, बहुदुक्खुप्पायणेसु रूवेसु । न य खुहियं तस्स मणं, उत्पन्न केवलं नाणं ॥ केवलनाणुप्पत्ती, नाऊण सुरा अखण्डलाईया । गय-तुरय-रहारूढा, साहुसयासं गया सिग्धं ॥ ६९ ॥ दट्टण हरिणकेसी, नणयसुयासन्तियं तु वित्तन्तं । साहेइ अमरवइणो, पेच्छ पहू ! दुक्करं एयं ॥ ७० ॥ देवाण वि दुप्फरिसो, हुयासणो सब सत्तभयजणणो | कह सीयाऍ महानस !, पवत्तिओ घोरउवसग्गो ॥ ७१ ॥ जिणधम्मभाविर्याए, सुसावियाए विसुद्धसोलाए । एवंविहाऍ सुरवइ !, कह होइ इमो उ उवसग्गो ? ॥ ७२ ॥ सो सुरवईण भणिओ, अहयं वच्चामि वेन्दओ साहुं । तं पुण वेयावच्चं, करेहि सीयाऍ गन्तूर्णं ॥ एव भणिऊण इन्दो, पायब्भासं मुणिस्स संपत्तो । हरिणेगवेसी वि तओ, गओ य सीयासमीवं सो ॥ एवं किरीडवरहारविभूसियङ्ग, सामन्तणेयपरिचुम्बियपायपीढं ।
३७ ॥ ७४ ॥
सेणाणिओ अमरनाहनिउत्तचित्तो, रामं निएइ विमलम्बरमग्गसत्थो || ७५ ||
॥ इइ पउमचरिए देवागमविहाणं नाम एकोत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥
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१०२. रामधम्मसवणविहाणपव्वं
तं पेच्छिऊण वाविं, तणकट्टसुपूरियं अइमहन्ती । पउमो समाउलमणो, चिन्तेइ बहुप्पयाराई ॥ १ ॥ कत्तो हैं वइदेहिं, पेच्छिस्सं विविहगुणसयाइण्णं । नियमेण एत्थ मरणं, पाविहि हुयासणे दित्ते ॥ २ ॥
चली गई । उसके गले में हार पहनाया और कहा कि यह श्रमण चोर है । (६३-५) उस पर ये तथा अन्य भी बहुत-से उपसर्ग उस पापी राक्षसीने किये । महेन्द्रोद्यान में स्थित श्रम के पास वह पुनः आई । (६६) अतिकुपित उसने वेताल, हाथी, सिंह, सैकड़ों भयङ्कर सर्प तथा स्त्रियों द्वारा उस मुनि पर उपसर्ग किये। (६७) इन तथा दूसरे अत्यन्त दुःखजनक रूपों द्वारा उस मुनिका मन क्षुब्ध हुआ । उसे केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ । (६८) केवल ज्ञानकी उत्पत्तिके बारेमें जानकर इन्द्र आदि देव हाथी, घोड़े और रथ पर सवार हो शीघ्र ही साधु के पास आये । (६)
सीताका वृत्तान्त जानकर हरिणकेशीने इन्द्रसे कहा कि, हे प्रभो ! दुष्कर कार्यको देखो । (७०) हे महायश ! देवोंके लिए भी दुःस्पर्य और सब प्राणियोंके लिए भयजनक ऐसा आगका यह घोर उपसर्ग सीताके लिए क्यों किया गया है ? (७१) हे देवेन्द्र ! जिन धर्म में श्रद्धालु, सुश्राविका और विशुद्धशीला - ऐसी सीता पर ऐसा उपसर्ग क्यों हुआ ? (७२) उसे इन्द्रने कहा कि मैं साधुको वन्दन करने जाता हूँ। तुम भी जाकर सीता की सेवा करो । ( ७३ ) ऐसा कहकर इन्द्र मुनिके चरणोंके समीप पहुँच गया । बादमें हरिणगमैषी भी सीताके पास गया । (७४) इस तरह किरीट एवं सुन्दर हारसे विभूषित शरीरवाले और अनेक सामन्तों द्वारा चुम्बित है पादपीठ जिसकी ऐसे रामको इन्द्र द्वारा सौंपे गये कार्य में व्यापारि मनवाले सेनापति हरिणगमैपीने निर्मल आकाशमार्गसे गमन करके देखा । (७५)
॥ पद्मचरितमें देवागम विधान नामका एक सौ एक पर्व समाप्त हुआ ||
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१०२. रामका धर्मश्रवण
तृण और काष्ठसे एकदम भरे हुए उस विशाल गड्ढे को देखकर मनमें व्याकुल राम बहुत प्रकारसे सोच-विचार करने लगे । (१) विविध गुणोंसे युक्त वैदेहीको में कैसे देखूँगा ? अवश्य ही वह इस प्रदीप्त भागमें मर जायगी । (२) १. • यासु य, सु० - प्रत्य० । २. वंदिउं सा० प्रत्य० । ३. तुह पुणमु० । ४. • महन्तं - प्रत्य० ।
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