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१०१.६४] १०१. देवागमविहाम्पव्यं
५२३ एवं सबो वि जणो, रोवन्तो भणइ गग्गरसरेणं । राहव । अइनिक्कलणं, मा ववससु एरिसं कम्मं ॥ ४९ ॥ पउमो भणइ नइ किवा, तुभ चिय अस्थि एत्थ तणुया वि। मा पह अइचवला, सीयापरिवायसंबन्धं ॥५०॥ रामेण तओ भणिया, पासत्था किंकरा खणह वाकिं । तिण्णेव उ हत्थसया, समचउरंसाऽवगाढा य॥ ५१ ॥ पूरेह इन्धणेहि, कालागुरु-चन्दणाईचूलेहिं । चण्डं नालेह लहूं, वावीए सबओ अग्गि ॥ ५२ ॥ सं आणवेसि सामिय!. भणिऊणं एव किंकरगणेहिं । तं चेव बाविमाई, कम्म अणुचिट्ठियं सर्व ॥ ३५ ॥ एयन्तरम्मि सेणिय !, तं रत्तिं सयलभूसणमुणिस्स । जणिओ चिय उवसग्गो, परभववेरीण उज्जाणे ॥ ५४ ॥ विज्जुवयंणाववाए, पावाए रक्खसोएँ घोराए । जहं तीऍ तस्स जणियं, दुक्खं तं सुणसु एगमणो ॥ ५५ ॥ गुञ्जाविहाणनयर, उत्तरसेढीऍ अत्थि वेयड्ढे । तं सीहविक्कमनिवो, भुञ्जइ विजाहरो सूरो ॥ ५६ ॥ तस्स सिरी वरमहिला, पुत्तो वि य सयलभूसंणो नाम । परिणेइ सो कुमारो, अट्ठ सयाई वरतणूणं ॥ ५७ ॥ अह तस्स अग्गमहिसी, गुणकलिया किरणमण्डला नाम । निययं मेहुणयं सा, अहियं अहिलसइ हेमसिहं ॥५८॥ तं पेच्छिऊण सहसा, रुट्ठो चिय सयलभूसणो अहियं । महुरक्खरे हिं सो पुण, उवसमिओ सेसमहिलासु ॥५९॥ अह अन्नया कयाई, तेण समं किरणमण्डला सइया । नाया य धाडिया पुण, रुद्रेणं नरवरिन्देणं ॥ ६० ॥ संवेयसमावन्नो, पबइओ सयलभूसणो राया । मरिऊण सा वि जाया, विज्जुमुही रक्खसी घोरा ॥ ६१ ॥ भिक्खटुं विहरन्तस्स तस्स सा रक्खसी महापावा । छेत्तण आलणाओ, हत्थि तो कुणइ उवसम्गं ॥ ६२॥ गिहदाहं रयवरिसं, पहे य बहुकण्टयाण पक्खिवणं । पडिमागयस्स उ तहा, गिहसंधि छिन्दिउँ तस्स ॥ ३६॥
चोरो काऊण तओ, बद्धो साहू पुणो य परिमुक्को । मज्झण्हदेसयाले, पविसइ नयरं च भिक्खढें ॥ ६४ ॥ हे राघव ! ऐसा अत्यन्त निर्दय कार्य आप मत करें। (४६) इस पर रामने कहा कि यदि तुममें तनिक भी दया होती तो अत्यन्त चञ्चल तुमने सीताके परिवादका वृत्तान्त न कहा होता। (५०) तब पासमें खड़े हुए नौकरोंसे रामने कहा कि तुम एक तीन सौ हाथ गहरी और समचतुरस्र बावड़ी खोदो। (५१) कालागुरु और चन्दन आदिकी लकड़ियोंसे उसे ऊपर तक भर दो और उस बावड़ीमें चारों ओर प्रचण्ड आग जल्दी जलाओ । (५२) 'स्वामी ! जैसी आज्ञा'-ऐसा कहकर नौकरोंने बावड़ी आदि सब काम सम्पन्न किया । (५३)
हे श्रेणिक ! उस रात उद्यानमें सकलभूपण मुनिके ऊपर परभवके एक पैरीने उपसर्ग किया। (५४) विद्यद्वदना नामकी उस भयङ्कर पापी राक्षसी ने उनको जैसा दुःख दिया उसे ध्यानसे सुनो। (५५) चैतात्यकी उत्तरश्रेणी में गुंजा नामका एक नगर है। सिंहविक्रम नामका शूर विद्याधर उसका उपभोग करता था। (५६) उसकी श्री नामकी उत्तम पत्नी तथा सकलभूषण नामका पुत्र था। उस कुमारने आठ सौ सुन्दरियोंके साथ विवाह किया। (५७) उसकी गुणोंसे युक्त किरणमण्डला नामकी एक पटरानी थी, जो अपने फूफेके पुत्र हेमसिंहको अधिक चाहती थी। (५८) यह देखकर सहसा सकलभूषण अधिक रष्ट हो गया। शेष महिलाओं द्वारा वह मीठे वचनोंसे शान्त किया गया। (५६) एक दिन उसके (हेमसिंहके) साथ किरणमण्डला सो गई। ज्ञान होने पर रुष्ट राजाने उसे बाहर निकाल दिया। (६०) संवेग प्राप्त सकलभूषण राजा ने प्रव्रज्या ली। यह रानी भी मरकर विद्युन्मुखी नामकी भयङ्कर राक्षसी हुई। (६१) भिक्षाके लिए विहार करते हुए उस पर उस महापापी राक्षसीने बन्धनमेंसे हाथीको छोड़कर उपसर्ग किया। (६२) गृहदाह, धूलकी वर्षा, मार्ग पर बहुत-से काँटोंका बिखेरनाये उपसर्ग उसने किये। दो दीवारोंके बीचका गुप्त स्थान तोड़कर और चोर कहकर उसने उस ध्यानस्थ साधुको पकड़वाया। बादमें वह छूट गया। मध्याह्नके समय नगरमें उस साधुने भिक्षार्थ प्रवेश किया तो स्त्रीका रूप धारण करके वह भिक्षा लेकर
. १. ० इपूलेहि-प्रत्य०। २. कम्मं च अणुट्ठियं-मु०। ३. •णाविवाए-प्रत्यः । ४. जह तस्त तीए दुक्खं जणियं तं सुणह एयमणो-प्रत्य०। ५. .हरो बलिओ-प्रत्यः। ६. .भूसणो तीसे । प.-प्रत्य०। ७. •क्खरेसु सो-मु०। ८. मुइयाप्रत्यः। 8. पम्मुक्को-प्रत्यः ।
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