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पउमचरियं
[१०१. ३४थेवो वि य सब्भावो, मज्झुवरिं तुज्झ नइ पहू । होन्तो। तो किं न अज्जियाए, गेहे हैं छड्डिया तइया ? ॥३४॥ अपहूणमणाहाणं, दुक्खताणं दरिद्दभूयाणं । विसमग्गयाण सामिय !, हवइह जिणसासणं सरणं ॥ ३५ ॥ बइ वहसि सामि ! नेहं, एव गए वि य पयच्छ मे आणं । होऊण सोमहियओ, किं काय मए एत्थं ॥३६॥ रामो भणइ तुह पिए ! अहयं जाणामि निम्मलं सीलं । नवरं जणाववायं, विगयमलं कुणसु दिवेणं ॥ ३७॥ सुणिऊण वयणमेयं, जंपइ सीया सुणेहि मह वयणं । पञ्चसु दिवेसु पहू !, लोगमहं पत्तियामि ॥ ३८ ॥ आरोहामि तुलमहं, जलणं पविसामि धरिमि फालं च । उग्गं च पियामि विसं, अन्नं पि करेमि भण समयं ॥३९॥ परिचिन्तिऊण रामो, नंपइ पविसरसु पावगं सीए ! । तोए वि य सो भणिओ, एवमिणं नत्थि संदेहो ॥४॥ पडिवन्नम्मि य समयं, तं चिय सीयाए जणवओ सोउं । पयलन्तअंसुनयणो, जाओ अइदुक्खिओ विमणो ॥४१॥ एयन्तरे पवुत्तो, सिद्धत्थो सुणसु देव ! मह वयणं । न सुरेहि वि सीलगुणा, वणिज्जन्ती विदेहाए ॥ ४२ ॥ पविसेज्ज व पायालं, मेरू लवणोदहि व सूसेज्जा । न हु सीलस्स विवत्ती, होज्ज पहू ! जणयतणयाए ॥ ४३ ॥ विज्जा मन्तेण मए, पञ्चसु मेरूसु चेइयहराई । अहिवन्दियाई राव !, तवो य चिण्णो सुइरकालं ॥ ४४ ॥ तं मे हवउ महाजस!, विहलं नं तत्थ पुण्णमाहप्पं । नइ सीलस्स विणासो, मणसा वि य अस्थि सोयाए ॥४५॥ पुणरवि भणइ सुभणिओ, सिद्धत्थो जइ अखण्डियचरित्ता । सीया तो अणलाओ, उत्तरिही कणयलट्टि छ ॥४६॥ गयणे खेयरलोओ, नंपइ धेरणीचरो महियलत्थो । साह ति साह भणियं, सिद्धत्थ ! तुमेरिसं वयणं ॥ ४७ ।
सीया सई सई चिय, भणइ जणो तत्थ उच्चकण्ठेणं । न य होइ विगोरत्तं, पउम! महापुरिसमहिलाणं ॥४८॥ यदि मुझ पर तुम्हारा थोड़ा भी सद्भाव होता तो उस समय तुमने मुझे आर्यिकाके घर ( उपाश्रय ) पर क्यों नहीं छोड़ दिया ? (३४) हे स्वामी ! लावारिस, अनाथ, दुःखार्त, दरिद्र और संकटमें आये हुए लोगों के लिए जिनशासन शरणरूप है। (३५) हे स्वामी ! ऐसा होने पर भी यदि तुम स्नेह धारण करते हो तो हृदयमें सौम्यभाव धारण करके मुझे आज्ञा दो कि मैं अब क्या करूँ ? (३६) इस पर रामने कहा कि, प्रिये ! मैं जानता हूँ कि तुम्हारा शील निर्मल है, केवल दिव्य-परीक्षा द्वारा लोगोंके अपवादको तुम विमल बनाओ। (३७) यह वचन सुनकर सीताने कहा कि, हे प्रभो ! मेरा कहना आप सुनें। पाँच दिव्योंसे में लोगोंको विश्वास करा सकती हूँ। (३८) मैं तुला पर चढ़ सकती हूँ, आगमें प्रवेश कर सकती हूँ, लोहे की तपी हुई लम्बी छड़को धारण कर सकती हूँ, उग्र विष पी सकती हूँ। आपको दूसरा भी कोई सम्मत हो तो वह कहो । मैं वह भी कर सकती हूँ। तब रामने सोचकर कहा कि, हे सीते! तुम आगमें प्रवेश करो। उसने भी उनसे ( रामसे) कहा कि इसमें सन्देह नहीं कि ऐसा ही हो । (४०)
सीता द्वारा स्वीकृत उस शपथको सुनकर आँखों से आँसू बहाते हुए लोग अत्यन्त दुःखित और विपण्ण हो गये। (४१) इस समय सिद्धार्थने कहा कि, देव ! मेरा कहना सुनें । वैदेहीके शीलगुणका तो देव भी वर्णन नहीं कर सकते । (४२) हे प्रभो! भले ही मेरुपर्वत पातालमें प्रवेश करे या लवणसागर सूख जाय पर सीताके शीलका विनाश नहीं हो सकता । (४३ हे राघव ! विद्यासम्पन्न मैंने पाँच मेरुओं पर आये हुए चैत्यगृहों में वन्दन किया है और सुचिर काल पर्यन्त तप भी किया है। (४४) हे महायश! मनसे भी यदि सीतकि शीलका विनाश हुआ हो तो जो मेरा विशाल पुण्य है वह विफल हो जाय । (४५) सुन्दर वचनवाले सिद्धार्थने आगे कहा कि यदि सीता अखण्डित शीलवाली है तो वह स्वर्णयष्टिकी भाँति आगमेंसे पार उतर जायगी । (४६) आकाशमें स्थित खेचर लोग तथा पृथ्वी स्थित मनुष्योंने कहा कि, हे सिद्धार्थ ! तुमने ऐसा वचन बहुत अच्छा कहा, बहुत अच्छा कहा । (४७) हे राम! सीता सती है, सती है। महापुरुषोंकी पत्नियों में विकार नहीं होता-ऐसा लोग वहाँ ऊँचे स्वरसे कहने लगे। (४८) इस तरह सब लोग रोते-रोते गद्गद कण्ठसे कहने लगे कि,
१. अब्बंधु-मणा.-प्रत्य। २. मे व.-प्रत्य। ३. ०१ पउमो,-प्रत्य० । ४. समए-प्रत्य•। ५. धरणीधरो -प्रत्य.। ६. विगारत्यं मु०-प्रत्य।
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