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५२० पउमचरियं
[१०१. २सामिय! परविसए सा, दुक्खं परिवसइ जणयनिवतणया । तीए पसन्नमणसो, होऊणं देहि आएसं ॥२॥ परिचिन्तिऊण एत्तो, पउमाभो भणइ नणपरीवायं । पत्ताएँ विदेहीए, कह तीऍ मुहं नियच्छे हैं ॥ ३ ॥ नइ पुहइजणं सर्व, एयं सवहेण पत्तियावेइ । तो तीऍ समं वासो, होहिइ न य अन्नभेएणं ॥ ४ ॥ भणिऊण एवमेयं, खेयरवसहेहि तुरियवेगेणं । आहूओ पुहइनणो, समागओ नरवइसमग्गो ॥ ५ ॥ विज्जाहरा वि सिग्धं, समागया सयलपरियणाउण्णा । आवासिया य सबे, नयरीए बाहिरुदेसे ॥ ६॥ मञ्चा कया विसाला, पेच्छागिहमण्डवा मणभिरामा । तेसु य जणो निविट्ठो, सवहेक्खणकसिओ। सबो ॥ ७ ॥ तम्बोल-फुल्ल-चन्द्रण-सयणा-ऽऽसण-खाण-पाणमाईयं । सबं षि सुपरिउत्त, मन्तीहि कयं नणवयस्स ॥ ८ ॥ तो रामसमाइट्टा, सुग्गीव-बिहीसणा सरयणजडी । भामण्डलहणुमन्ता, विराहियाई अह पयट्टा ॥ ९ ॥ एए अन्ने य भडा, पुण्डरियपुरं गया खणद्धेणं । पइसन्ति रायभवणं, नत्थ उ परिवसइ वइदेही ॥ १० ॥ काऊण य नयसई, सीयं, पणमन्ति खेयरा सबे । ते वि य ससंभमाए, अहियं संभासिया तीए ॥ ११ ॥ अह ताण निविट्ठाणं, जंपइ सीया सनिन्दणं वयणं । एयं मज्झ सरीरं, कयं च दुक्खासयं विहिणा ॥ १२ ॥ अङ्गाई इमाई मह, दुजणवयणाणलेण दड्डाइं । खीरोयसायरस्स वि, जलेण न य नेबुई जन्ति ॥ १३ ॥ अह ते भणन्ति सामिणि !, एय मेल्लेहि दारुणं सोयं । सो पावाण वि पाबो, जो तुज्झ लएइ अववायं ॥ १४ ॥ को उक्खिवइ वसुमई, को पियइ फुलिङ्गपिङ्गलं जलणं । को लेहइ जीहाए, ससि-सूरतणू वि मूढप्पा ॥ १५ ॥ जो गेण्हइ अववायं, एत्थ जए तुज्झ सुद्धसीलाए । सो मा पावउ सोक्खं, कयाइ लोए अलियवाई ॥ १६ ॥
एयं पुप्फविमाणं, विसज्जियं तुज्झ पउमनाहेणं । आरुहसु देवि! सिग्धं, वच्चामो कोसलानयरिं ॥ १७ ॥ जनकराजकी पुत्री संता दुःखपूर्वक रहती है। आप मनमें प्रसन्न होकर उसको लाने के लिए आज्ञा दें। (१-२) तब रामने सोचकर कहा कि लोगोंका अपवाद-प्राप्त उस सीताका मुख में कैसे देख सकता हूँ ? (३) यदि शपथपूर्वक पृथ्वी परके सब लोगोंको यह विश्वास करावें तो उसके साथ रहना हो सकेगा, दूसरे किसी प्रकारसे नहीं। (४) 'ऐसा ही हो' इस तरह कहकर खेचर राजाओंने तुरन्त ही पृथ्वीके लोगोंको बुलाया। राजाओंके साथ वे आये (५) सम्पूर्ण परिवारके साथ विद्याधर भी शीघ्र ही आ पहुँचे। नगर के बाहरके प्रदेशमें वे सब ठहराये गये । (६) विशाल मंच और मनोहर प्रेक्षागृह तथा मण्डप बनाये गये। शपथ देखने की इच्छावाले सबलोग उनमें बैठ गये। (५) पान-वीड़ा, फूल, चन्दन, शयनासन, खान-पान आदि सबकी मंत्रियोंने लोगोंके लिए भली-भाँति व्यवस्था की थी। (5)
तब रामसे आज्ञाप्राप्त रत्नजटीके साथ सुग्रीव, विभीषण, भामण्डल, हनुमान और विराधित आदि तथा दूसरे सुभट पौण्डरिकपुरकी ओर चल पड़े और आधे क्षण में वहाँ पहुँच गये। जिस राजभवनमें सीता थी उसमें उन्होंने प्रवेश किया । (३-१०) 'जय' शब्द करके उन खेचरोंने सीताको प्रणाम किया। आदरयुक्त उसके साथ उन्होंने खूब बातचीत की। (११) बैठे हुए उनसे सीताने आत्मनिन्दापरक वचन कहे कि विधिने मेरा यह शरीर दुःखका आश्रयस्थान-सा बनाया है। (१२) दुर्जनोंदी वचनरूपी आगसे जले हुए मेरे ये अंग क्षीरसागरके जलसे भी शान्त नहीं हो सकते (१३) इस पर उन्होंने कहा कि, स्वामिनी ! इस दारुण शोकका आप परित्याग करें। जो आपके बारेमें अपवाद कहता है यह पापियोंका भी पापी है। (१४) कौन पृथ्वीको ऊपर फेंक सकता है ? चिनगारियोंसे पीली आगको कौन पी सकता है ? कौन मूर्ख जीभसे चन्द्रमा और सूर्यका शरीर चाट सकता है ? (२५) शुद्ध शीलवाली आपकी जो इस जगत में बदनामी स्वीकार करता है वह पापी और झुठा इस लोक में कभी सुख न पावे। (१६) हे देवी! आपके लिए रामने यह पुष्पक विमान भेजा है। आप जल्दी इस पर सवार हों, जिससे हम साकेतनगरी की ओर प्रयाण करें। (१७) जिसप्रकार चन्द्रकी मूर्तिके
१. एवं-प्रत्य० । २. होही ण य-प्रत्य। ३. सुपडिउत्तं-मु०। ४. सुरयण-मु०। ५. हणुवंता-प्रत्य. ! ६. पविसति-प्रत्यः । ७. मिल्हेहि-प्रत्य०।८. लोओ-प्रत्य।
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