________________
१०१.३३]
१०१. देवारामविहाणपब्वं पउमो देसो य पुरी, न य सोहं देन्ति विरहियाणि तुमे । जह तरुभवणागास, विवज्जियं चन्दमुत्तीए ॥ १८ ॥ सा एव भणियमेचा, सीया अववायविहुणणट्टाए । आरुहिय वरविमाणं, साएयपुरि गया सभडा ॥ १९ ॥ तत्थ उ महिन्दउदए, ठियस्स रामस्स वरविमाणाओ। अवइण्णा नणयसुया, तत्थ य रयणि गमइ एक ॥ २० ॥ अह उम्गयम्मि सूरे, उत्तमनारीहि परिमिया सीया । ललियकरेणुवलग्गा, पउमसयासं समणुपत्ता ॥ २१ ॥ जंपइ जणो समत्थो, रूवं सत्तं महाणुभावत्तं । सीयाएँ उत्तम चिय, सील सयले वि तेलोके ।। २२ ॥ गयणे खेयरलोओ, धरणियले वसुमईठिओ सबो । साहुक्कारमुहरवो, अहियं सीयं पलोएइ ॥ ३२ ॥ केई नियन्ति राम, अन्ने पुण लक्खणं महाबाहुं । ससि-सूरसमच्छाए, पेच्छन्ति लवं-ऽङ्कुसे अन्ने ॥ २४ ॥ सुग्गीवं जणयसुयं, बिहीसणं केइ तत्थ हणुवन्तं । पेच्छन्ति विम्हियमणा, चन्दोयरनन्दणं अन्ने ॥ २५ ॥ रामस्स सन्नियासं, तत्थ रियन्तीएँ नणयधूयाए । सह पत्थिवेहिं अग्धं, विहेइ लच्छीहरो विहिणा ॥ २६ ॥ दठ्ठण आवयंति, सीयं चिन्तेइ राहवो एत्तो । कह उज्झियो वि न वि मया. एसा सत्ताउले रण्णे? ॥ २७॥ काऊण अञ्जलिउड, पणिवइया राहवस्स चलणेसु । सीया बहुप्पयारं, परिचिन्तन्ती ठिया पुरओ ॥ २८ ॥ तं भणइ पउमनाहो, मा पुरओ ठाहि मज्झ वइदेहि ! । अवसरसु पेच्छिउं जे, न य है तीरामि गयलज्जो ॥२९॥ लङ्काहिवस्स भवणे, अन्तेउरपरिमिया बहू दिवसे । तत्थ तुमं परिवसिया, न य ह नाणामि ते हिययं ॥३०॥ सीया पई पवुत्ता, तुह सरिसो नत्थि निट्टरो अन्नो । पाययपुरिसो व जहा, ववससि अइदारुणं कम्मं ॥ ३१ ॥ डोहलछम्मेण अहं, नंसि तुमे छड्डिया महारणे । तं राहव ! अणुसरिसं, किं ते अइनिट्टर कम्मं ? ॥ ३२ ॥
जइ हं असमाहीए, तत्थ मरन्ती महावणे घोरे । तो तुब्भ किं व सिद्धं, होन्तं महदोग्गइकरस्स ॥ ३३ ॥ बिना वृक्ष, भवन और आकाश नहीं सुहाते वैसे ही आपके विना राम, देश और नगरी शोभित नहीं होती। (१८) इस प्रकार कही गई सीता अपवादको दूर करनेके लिए उत्तम विमान पर आरूढ़ हुई और सुभटोंके साथ साकेतपुरीको गई। (१६) वहाँ महेन्द्रोदय नामक उद्यानमें ठहरे हुए रामके उत्तम विमानमेंसे सीता नीचे उतरी और वहीं पर एक रात बिताई । (२०)
सूर्योदय होने पर उत्तम स्त्रियोंसे घिरी हुई सीता सुन्दर हथिनी पर सवार हो रामके पास गई । (२१) सबलोग कहने लगे कि समग्र त्रिलोकमें सीताका रूप, सत्त्व, महानुभावता और शील उत्तम है। (२२) आकाशमें विद्याधर और पृथ्वी पर मनुष्य-सब कोई मुँहसे प्रशंसा करते हुए सीताको अधिक देखने लगे। (२३) कोई रामको तो कोई महासमर्थ लक्ष्मणको देखते थे। दूसरे चन्द्रमा और सूर्यके समान कान्तिवाले लवण और अंकुशको देखते थे। (२४) वहाँ कोई सुग्रीवको, भामण्डलको, विभीषणको, हनुमानको तो दूसरे चन्द्रोदरके पुत्र विराधितको मनमें विस्मित हो देखते थे। (२५) वहाँ रामके पास जाती हुई सीताको पार्थिवोंके साथ लक्ष्मणने विधिवत् अर्घ्य प्रदान किया। (२६) आती हुई सीताको देखकर राम सोचने लगे कि वन्य प्राणियोंसे व्याप्त अरण्यमें छोड़ने पर भी यह क्यों न मरी ? (२७) हाथ जोड़कर सीताने रामके चरणोंमें प्रणिपात किया। अनेक प्रकारके विचार करती हुई वह सम्मुख खड़ी रही। (२८) रामने उसे कहा कि, सीते! तुम मेरे
आगे मत खड़ी रहो। तुम दूर हटो, क्योंकि निर्लज्ज मैं तुम्हें देख नहीं सकता। (२९) रानियों से घिरी हुई तुम बहुत दिन तक रावणके महल में रही। मैं तुम्हारा हृदय नहीं जानता। (३०) इसपर सीता ने पति से कहा कि
तुम्हारे जैसा दूसरा कोई निष्ठुर नहीं है। हे स्वामी ! प्राकृतजनकी भाँति तुम दारुण कर्म कर रहे हो । (३१) हे राघव ! दोहदके बहानेसे जो मुझे तुमने महावनमें छोड़ दिया उसके जैसा प्रतिनिष्टर तुम्हारा दूसरा कार्य कौन-सा है ? (३२) यदि मैं उस घोर जंगलमें असमाधिपूर्वक मर जाती तो अत्यन्त दुर्गति करनेवाले तुम्हारा क्या सिद्ध होता ? (३३) हे प्रभो!
१. •णुषिलग्गा-प्रत्य०। २. तइलोक्के-प्रत्य। ३. या न वि मुया--मु.। ४. चलणेहिं-मु.। ५. सरह पे०-प्रत्य०। ६. गयलज्जे-प्रत्य० ।
६६
2-11
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org