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पउमचरियं
[१००.३६नइ एसो तत्थ वणे, न य होन्तो पुण्डरीयपुरसामी । तो तुम्ह पुत्तया है, कह पेच्छन्तो वयणचन्दे? ॥ ३६ ॥ एएहि अमोहेहिं, जं न मए विनिहया महत्थेहिं । हा वच्छय अइपुण्णा, तुम्भेऽज्थ जए निरवसेसं ॥ ३७ ।। पुणरवि भणइ सुभणिओ, पउमो तुम्भेहि दिसंतेहिं । जाणामि जणयतणया, जीवइ नत्थेत्थ संदेहो ॥ ३८ ॥ लच्छीहरो वि एत्तो, सबसुनयणो विओगदुक्खत्तो । आलिङ्गइ दो वि जणे, गाढं लवणं-ऽकुसकुमारे ॥ ३९ ॥ सत्तग्याइनरिन्दा, मुणिऊणं एरिसं तु वित्तन्तं । तं चेव समुद्देस, संपत्ता उत्तमा पीई ॥ ४० ॥ नाओ. उभयबलाणं, समागमोऽणेयसुद्दडपमुहाणं । धणपीइसंगयाणं, रणतत्तिनियत्तचित्ताणं ॥ ४१ ॥ पुत्ताणं दइयस्स य, समागमं पेच्छिऊण जणयसुया । दिवबिमाणारूढा, पुण्डरियपुरं गया सिग्धं ॥ ४२ ॥ एत्तो हरिसबसगओ, पुत्ताण समागमे पउमनाहो । खेयर-नरपरिकिण्णो, मण्णइ तेलोक्कलम्भं व ॥ ४३ ॥ अह तत्थ राहवेणं. पत्ताण कओ समागमाणन्दो । बहुतरमङ्गलरवो, नचन्तविलासिणीपउरो ॥ ४४ ॥ अह भणइ वज्जजङ्घ, पउमो भामण्डलं च परितुट्ठो । तुब्भेहि मज्झ बन्धू, जेहि कुमारा इहाणीया ॥ ४५ ॥ एत्तो साएयपुरी, सग्गसरिच्छा कया खणखूणं । बहुतूरमङ्गलरवा, नडनट्टपणच्चिउग्गीया ।। ४६ ॥ पुत्तेहि समं रामो, पुप्फविमाणं तओ समारूढो । तत्थ विलग्गो रेहइ, सोमित्ती विरइयाभरणो ॥ ४७ ॥ पायारगोउराई, जिणभवणाइं च केउनिवहाई । पेच्छन्ता नरवसभा, साएयपुरि पविसरन्ति ॥ ४८ ॥ गय-तुरय-जोह-रहवर-समाउला जणियतूरजयसदा । हल-चक्कहर-कुमारा, वच्चन्ति जणेण दीसन्ता ॥ ४९ ॥ नारीहि तओ सिग्छ, लवणं-ऽकुसदरिसणुस्सुयमणाहिं । पडिपूरिया गवक्खा, निरन्तरं पङ्कयमुहीहिं ।। ५० ।।
अइरूवनोबणधरे, अहियं लवणं-ऽकुसे नियन्तीहिं । जुबईहि हारकडयं, विवडियपडियं न विन्नायं ॥ ५१ ॥ हे वत्स ! मेरे द्वारा इन अमोघ महात्रोंसे आहत होनेपर भी तुम नहीं मारे गये थे, इसलिए इस सारे विश्वमें तुम अत्यन्त पुण्यशाली हो । (३७)
वचनकुशल रामने पुनः कहा कि तुमको देखनेसे मैं मानता हूँ कि सीता जीवित है, इसमें कोई सन्देह नहीं। (३८) आँखोंमें आँसू भरे हुए तथा वियोगके दुःखसे पीड़ित लक्ष्मणने दोनों लवण और अंकुश कुमारोंको गाढ़ आलिंगन किया। (३९) शत्रुघ्न आदि राजा ऐसा वृत्तान्त जानकर उस प्रदेशमें आये। उन्होंने उत्तम प्रीति सम्पादित की। (४०) अनेक प्रमुख सुभटोंवाली, अत्यन्त प्रीतिसे सम्पन्न और युद्धकी प्याससे निवृत्त चित्तवाली-ऐसी दोनों सेनाओंका समागम हुआ। (४०) पुत्रोंका और पतिका समागम देखकर दिव्य विमानमें आरूढ़ सीता शीघ्र ही पौण्डरिकपुर चली गई । (४२) विद्याधर तथा मनुष्योंसे घिरे हुए राम पुत्रोंका समागम होने पर आनन्दमें आकर मानो त्रैलोक्यकी प्राप्ति हुई हो ऐसा मानने लगे । (४३) बादमें वहाँ पर रामने पुत्रोंका बहुविध वाद्योंकी मंगलध्वनिसे युक्त तथा नाचती हुई विलासिनियोंसे सम्पन्न मिलन-महोत्सव मनाया । (४४) तब अत्यन्त आनन्दित रामने वनजंघ और भामण्डलसे कहा कि तुम मेरे भाई हो, क्योंकि तुम कुमारोंको यहाँ लाये हो । (४५) अनेकविध मंगलध्वनिसे युक्त तथा नट एवं नर्तकों द्वारा प्रनर्तित एवं उद्गीत वह साकेतनगरी थोड़ी ही देरमें स्वर्ग-सदृश बना दी गई। (४६) फिर पुत्रोंके साथ राम पुष्पक विमानमें आरूढ़ हुए। उसमें बैठा हुआ तथा आभूषणोंसे विभूषित लक्ष्मण भी शोभित हो रहा था। (४७) प्राकार, गोपुर, जिनमन्दिर और ध्वजाओंके समूहको देखते हुए वे नरष्ठ साकेतपुरीमें प्रविष्ट हुए । (४८) हाथी, घोड़े, योद्धा एवं सुभटोंसे घिरे हुए, वाद्योंकी ध्वनिके साथ जयघोष किये जाते तथा लोगोंके द्वारा दर्शन किये जाते वे चल रहे थे। (४९) उस समय लवण
और अंकुशके दर्शनके लिए मनमें उत्सुक कमलसदृश मुख्वाली रियोंने खाली जगह न रहे इस तरहसे गवाक्षोंको भर दिया। (५०) अत्यन्त रूप और यौवन धारण करनेवाले लवण और अंकुशको गौरसे देखनेवाली रियोंको निकलकर गिरे हुए हार और कड़ेके बारे में कुछ खबर ही नहीं रही । (५१) अरी ! सुन्दर केशपाश और पुष्पोंसे भरे हुए सिरको
१. एत्तो विओगदुक्खेण दुक्खि यसरीरो । आ०--प्रत्य० । २. सुणिऊणं-प्रत्य० ।
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