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१००. लवणंऽकुससमागमपव्वं गन्तूण कुससयासं, तं चकं वियसियप्पहं सिग्छ । पुणरवि य पडिनियत्तं, संपत्तं लक्खणस्स करं ॥ २० ॥ तं लक्खणेण चक्कं, खित्तं खित्तं कुसस्स रोसेणं । विहलं तु पडिनियत्तइ, पुणो पुणो पवणवेगेणं ॥ २१ ॥ एयन्तरे कुसेणं, धणुयं अप्फालिउं सहरिसेणं । ठा ठाहि सवडहुत्तो, भणिओ लच्छीहरो समरे ॥ २२ ॥ दठूण तहाभूयं, रणङ्गणे लक्खणं समत्थभडा । जपन्ति विम्हियमणा, किं एवं अन्नहा जाय ? ।। २३ ।। किं कोडिसिलाईयं, अलियं चिय लक्खणे समणुनायं ! | कज्जं मुणिवरविहियं ?, चक्कं जेणऽन्नहाभूयं ।। २४ ।। अह भणइ लच्छिनिलओ, विसायपरिवजिओ धुवं एए । बलदेव-वासुदेवा, उप्पन्ना भरवासम्मि ॥ २५ ॥ लज्जाभरोत्थयमणं, सोमित्तिं पेच्छिऊण सिद्धत्थो । सह नारएण गन्तुं, जंपइ वयणं सुणसु अम्हं ॥ २६ ॥ देव ! तुमं चक्कहरो, बलो य पउमो न एत्थ संदेहो । किं मुणिवराण वयणं, कयाइ अलियं हवइ लोए ? ।। २७ ।। सोयाएँ सुया एए, लवं-ऽकुसा नाम दोणि वि कुमारा । गब्भट्ठिए, जेसुं, वइदेही छड्डिया रणे ॥ २८ ॥ सिद्धत्थ-नारएहिं, तम्मि य सिट्टे कुमारवित्तन्ते । ताहे ससुनयणो, उज्झइ लच्छीहरो चकं ॥ २९ ।। रामो वि निसुणिऊणं, सुयसंबन्धं तओ वियलियच्छो । घणसोयपीडियतणू, मुच्छावसविम्भलो पडिओ ।। ३०॥ चन्दणजलोल्लियङ्गो, आसत्थो राहवो सुयसमीवं । वच्चइ लक्खणसहिओ, नेहाउलमाणसो सिग्धं ॥ ३१ ।। लवणं-ऽकुसा वि एत्तो, ओयरिऊणं रहाउ दो वि जणा । तायस्स चलणजुयलं, पणमन्ति ससंभमसिणेहा ॥३२॥ अवगूहिऊण पुत्ते, कुणइ पलावं तओ पउमनाहो । अइनेहनिव्भरमणो, विमुक्कनयणंसुनलनिवहो ॥ ३३ ॥ हा हा! मयाऽइकट्ट, पुत्ता! गब्भट्ठिया अणजेणं । सीयाएँ समं चत्ता, भयजणणे दारुणे रण्णे ॥ ३४ ॥ हा! विउलपुण्णया वि हु, सीयाए नं मए वि संभूया। उयरत्था अइघोरं, दुक्खं पत्ता उ अडवीए ॥ ३५ ॥
आया और लक्ष्मणके हाथमें पहुँच गया। (२०) लक्ष्मणने वह चक्र रोषमें आकर पुनः पुनः अंकुशके ऊपर फेंका, किन्तु विफल होकर पवनके वेगकी तरह वह पुनः पुनः वापस आता था। (२१) तब आनन्दमें आकर अंकुशने धनुषका आस्फालन किया और लक्ष्मणसे कहा कि युद्ध में सामने खड़े रहो । (२२) युद्धभूमिमें लक्ष्मणको वैसा देख मनमें विस्मित सब सुभट कहने लगे कि यह अन्यथा कैसे हुआ ? (२३) मुनीश्वर द्वारा उक्त कोटिशिला आदि कार्य क्या लक्ष्मणमें असत्य मानना, क्योंकि चक्र अन्यथाभूत हुआ है। (२४) इस पर विवादमुक्त लक्ष्मणने कहा कि अवश्य ही भरतक्षेत्र में ये बलदेव और वासुदेव उत्पन्न हुए हैं। (२५)
लज्जाके भारसे दवे हुए मनवाले लक्ष्मणको देखकर सिद्धार्थ नारदके साथ उसके पास गया और कहा कि हमारा कहना सुनो । (२६) हे देव आपही चक्रधर और राम बलदेव हैं, इसमें सन्देह नहीं। क्या मुनिवरोंका वचन कभी लोकमें असत्य होता है ? (२७) लवण और अंकुश नामके ये दोनों कुमार सीताके पुत्र हैं, जिनके गर्भ में रहते समय खीता वनमें छोड़ दी गई थी। (२८) सिद्धार्थ और नारद द्वारा कुमारोंका वह वृत्तान्त कहे जाने पर आँखोंमें आँसूसे युक्त लक्ष्मणने चक्रको छोड़ दिया । (२६) पुत्रोंका वृत्तान्त सुनकर आँखोंमें आँसू बहाने वाले और शोकसे अत्यन्त पीड़ित शरीरवाले राम भी मूर्छावश विह्वल हो नीचे गिर पड़े। (३०) चन्दनके जलसे सिक्त देहवाले राम होशमें आकर मनमें स्नेहसे युक्त हो लक्ष्मणके साथ शीघही पुत्रों के पास गये । (३१) उधर रथ परसे नीचे उतरकर दोनों लवण और अंकुश आदर और स्नेहके साथ पिताके चरणों में गिरे। (३२) पुत्रोंको आलिंगन करके मनमें अत्यन्त स्नेहसे युक्त तथा आँखों में से अथुजलका प्रवाह बहानेवाले राम प्रलाप करने लगे कि मुझे दुःख है कि अनार्य मैंने सीताके साथ गर्भस्थित पुत्रोंको भयोत्पादक दारुण वनमें छोड़ दिया : (३३-३४) विपुल पुण्यवाली सीतामें जो मेरे द्वारा उत्पन्न किये गये थे उन उदरस्थ पुत्रों को वनमें अतिभयंकर दुःख मिला । (३५) यदि ये पोण्डरिक पुर के स्वामी उस वन में न होते तो मैं तुम पुत्रों का वदनरूपीचन्द्र कैसे देख पाता ? (३६)
(२६) पुत्रोंका वृत्त नारद द्वारा कुमारों का बहार सीताके पुत्र हैं, जिनका मनिवरोंका वचन कभी हमारा घही एत्रों के पास गई। (३०) चन्दनके जासू बहाने वाले और शोआखामें आँसूसे युक्त लाम
१. विहयमाणा-प्रत्य०। २. .सु जेमु य व०-प्रत्य० ।
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