________________
पउमचरियं
[१.०.४ एयन्तरम्मि पउमो, भणइ कयन्तं रहं सवडहुतं । ठावेहि वेरियाणं, करेमि जेणारिसंखोहं ॥ ४ ॥ नंपइ कयन्तवयणो, एए वि हु नज्जरीकया तुरया । सुणिसियचाणेहि पहू!, इमेण संगामदच्छेणं ॥ ५ ॥ निद्दावसम्मि पत्ता, इमे हया पयलरुहिरविच्छड्डा । न वहन्ति चडुसएहि वि, न चेव करताडिया सामि ! ॥ ६ ॥ राव ! मज्झ भुयाओ, इमाउ बाणेहि सुणिसियग्गेहिं । पेच्छसु अरीण संपइ, कयम्बकुसुमं पिव कयाओ ॥ ७ ॥ पउमो भणइ कयन्तं, वज्जावत्तं महं पि धणुरयणं । सिढिलायइ अइदूर, विहलपयावं व हलमुसलं ॥ ८ ॥ जक्खकयरक्खणाणं, परपक्खखयंकराण दिवाणं । अत्थाण संपइ महं, जाया एयारिसाऽवत्था ॥ ९ ॥ अत्थाण निरत्थत्तं, सेणिय ! जह राहवस्स संजायं । तह लक्खणस्स वि रणे, एव विसेसेण नायब ॥ १० ॥ परिमुणियनाइबन्धा, सावेक्खा रणमुहे कुमारवरा । जुज्झन्ति तेहि समय, हल-चकहरा निरावेक्खा ॥ ११ ॥ रामस्स करविमुक्कं, तं सरनिवहं लबो पडिसरेहिं । छिन्नइ बलपरिहत्थो, कुसो वि लच्छीहरस्सेवं ॥ १२ ॥ ताव य कुसेण भिन्नो, सरेसु लच्छीहरो गओ मोहं । सिग्धं विराहिओ वि हु, देइ रहं कोसलाहुत्तं ॥ १३ ॥ आसत्थो भणइ तओ, विराहियं लक्खणो पडिवहेणं । मा देहि रहं सिग्छ, ठवेहि समुहं रिउभडाणं ॥ १४ ॥ सरपूरियदेहस्स वि, संगामे अहिमुहस्स सुहडस्स । सूरस्स सलाहणिय, मरणं न य एरिसं जुत्तं ॥ १५ ॥ सुर-मणुयमज्झयारे, परमषयपसंसिया महापुरिसा । कह पडिवज्जन्ति रणे, कायरभावं तु नरसीहा ? ॥ १६ ॥ दसरहनिवस्स पुत्तो, भाया रामस्स लक्खणो अहयं । तिहुयणविक्खायजसो, तस्सेवं नेव अणुसरिसं ॥ १७ ॥ एव भणिएण तेणं, नियत्तिओ रहवरो पवणवेगो । आलग्गो संगामो, पुणरवि जोहाण अइघोरो ॥ १८ ॥
एयन्तरे अमोहं. चक्कं नालासहस्सपरिवारं । लच्छीहरेण मुक्त, कुसस्स तेलोकभयनणयं ॥ १९ ॥ विराधित लक्ष्मणका सहायक हुआ। (३) बादमें रामने कृतान्तवदनसे कहा कि रथको शत्रुओंके सम्मुख ले जाओ जिससे मैं शत्रुओंको व्यग्र करूँ। (४) कृतान्तवदनने कहा कि, हे प्रभो! संग्राममें दक्ष इसने तीक्ष्ण बाणोंसे इन घोड़ोंको जर्जर बना दिया है। (५) हे स्वामी ! बहते हुए रुधिरसे आच्छादित ये घोड़े बेसुध हो गये हैं। न तो सैकड़ों मधुर वचनसे
और न हाथसे थपथपाने पर भी ये चलते हैं । (६) हे राघव! मेरी इन भुजाओंको देखो जो फेंके गये तीक्ष्ण नोकवाले बाणोंसे शत्रुओंने कदम्बके पुष्पकी भाँति कर दी है। (७) तब रामने कृतान्तवदनसे कहा कि मेरा भी धनुषरत्न वज्रावर्त अत्यन्त शिथिल बना दिया गया है तथा हल-मूसल भी प्रतापहीन कर दिया गया है। (८) यक्षों द्वारा रक्षा किये जाते तथा शत्रुपक्षके लिए विनाशकारी मेरे दिव्य शस्त्रों की भी इस समय ऐसी अवस्था हो गई है। (ह) हे श्रेणिक ! रामके शस्त्रोंकी जैसी निरर्थकता हुई वैसे ही विशेष रूपसे लक्ष्मणकी भी युद्धमें समझना । (१०) ज्ञातिसम्बन्धको जाननेवाले कुमारवर सज्ञानभावसे लड़ रहे थे, जबकि राम और लक्ष्मण उनके साथ निरपेक्षभावसे लड़ रहे थे । (११) रामके हाथसे फेंका गया बाण-समूह युद्धमें दक्ष लवण विरोधी बाणोंसे काट डालता था। इसी तरह अंकुश भी लक्ष्मणके बाणों को काटता था। (१२) उस समय अंकुशके द्वारा वाणोंसे भिन्न लक्ष्मण बेसुध हो गया। विराधितने भी शीघ्र ही रथ साकेत की ओर फेरा । (१३) होशमें आनेपर लक्ष्म गने विराधित से कहा कि विपरीत मार्ग पर रथ मत ले जाओ। शीघ्र ही शत्रुके सम्मुख उसे स्थापित करो। (१४) बागोंसे देह भरी हुई होने पर भी सामना करनेवाले वीरसुभटका युद्ध में ही मरण श्लाघनीय है, किन्तु ऐसा-पीठ दिखाना उपयुक्त नहीं है। (१५) देव एवं मनुष्यों में अत्यन्त प्रशंसित और नरसिंह सरीखे महापुरुष युद्धमें कातर भाव कैसे स्वीकार कर सकते हैं ? (१६) दशरथ राजाका पुत्र, रामका भाई और तीनों लोकोंमें विख्यात यशवाला मैं लक्ष्मण हूँ। उसके लिए ऐसा अनुचित है। (१७) ऐसा कहकर उसने पवनवेग नामक रथ लौटाया और योद्धाओंके लिए अतिभयंकर ऐसे संग्राममें जुट गया। (१८) तब लक्ष्मणने अंकुशके ऊपर अमोघ, हजारों ज्वालाओंसे व्याप्त तथा तीनों लोकों में भय पैदा करनेवाला चक्र फेंका । (१६) विकसित प्रभावाला वह चक अंकुराके पास जाकर शीघ्र ही वापस लौट
१. घाहेहि-प्रत्य० । २. तस्सेयं-प्रस्य० । ३. जणणं-प्रत्य० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org