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लवणं-कुस देस विजयपब्वं
१ ॥ २ ॥
पेच्छइ नरिन्दं ॥ ५ ॥ सुयामग्गणट्टाए ॥
९८. तो उदारकीलण जोग्गा लवण-ऽङ्कुसा पलोएउं । राया उ वज्जजङ्घो, कन्नाउ गवेस ताणं ॥ लच्छीमईऍ धूया, ससिचूला नाम सुन्दरा कन्ना । बत्तीसकुमारिजुया, पढमस्स निरूविया सा उ वीवाहमङ्गलं सो, दट्टु ं दोण्हं पि इच्छइ नरिन्दो । रूवेण अणुसरिच्छं, बीयस्स गवेसए कन्नं ॥ ३ ॥ चितन्तेण सुमरिया, पुesपुरे पिनरिन्दअङ्गरुहा । नामेण कणयमाला, अमयमईकुच्छि संभूया ॥ ४ ॥ ती कण दूओ, सिग्धं संपेसिओ नरवईणं । संपत्तो पुहइपुरं, तत्थ पिहुं नंपइ कयसम्माणो, दूओ हं वज्जजङ्घनरवइणा | संपेसिओ महानस !, तुज्झ ६ ॥ मणस्स एयं देहि सुयं देव! वरकुमारस्स । नेहं च अवोच्छिन्नं, कुणसु समं वज्जनणं ॥ ७ ॥ तो भइ पिनरिन्दो, रे दूय ! वरस्स जस्स पढमगुणो । न य नज्जइ कुलवंसो, कह तस्स सुयं अहं देमि ? ॥ एव भणन्तस्स तुमं, जुत्तं चिय दूय ! निग्गहं काउं । किं व परेण पउत्तं, नं तं न दुरावहं होइ ? ॥ ९॥ सो एव निहुराए, गिराऍ निव्भच्छिओ नरवईणं । दूओ गन्तूण फुडं, १० ॥ सुणिऊण दूयवयणं, सन्नद्धो वज्जजङ्घनरवसभो । सह साहणेण गन्तुं पिहुदेसवहे रुट्टो, वग्घरहो नाम पत्थिवो सूरो । जुज्झन्तो च्चिय गहिओ, नाऊण य वग्घरहं, बद्ध ं दे च विहयविद्धत्थं । पिहुनरवई सलेह, पुरिसं पेसेइ मित्तस्स ॥ नाऊण य लेहृत्थं, समागओ पोयणाहिवो राया । बहुसाहणो महप्पा, मित्तस्स सहायकज्जेणं ॥
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कहेइ सिरिवज्जनङ्घस्स ॥ विद्धंसइ पुहपुरदेसं ॥ संगामे वज्जजङ्घेणं ॥
११ ॥
९८.
लवण और अंकुशका देशविजय
इधर सुन्दर और क्रिड़ाके योग्य लवण एवं अंकुशको देखकर वज्रजंघ राजा उनके लिए कन्याओंकी खोज करने लगा । (१) लक्ष्मी मती की शशिचूला नामकी सुन्दर कन्या बत्तीस युवतियोंके साथ पहले लवण कुमार को दी गई । (२) राजा लवण और अंकुश दोनों का विवाहमंगल देखना चाहता था, अतः दूसरेके लिए रूपमें समान कन्याकी वह खोज करने लगा । (३) सोचने पर उसे याद आया कि पृथ्वीपुर के पृथुनरेन्द्र की पुत्री और अमृतवतीकी कुक्षिसे उत्पन्न कनकमाला नामकी कन्या है । (४) उसके लिए राजा के पास शीघ्र ही उसने दूत भेजा । पृथ्वीपुर में वह पहुँचा । वहाँ उसने पृथुराजाके दर्शन किये । (५) जिसका सत्कार किया गया है ऐसे उस दूतने कहा कि, हे महायश ! वज्रजंघ राजाके द्वारा मैं आपकी पुत्रीकी मंगनीके लिए भेजा गया हूँ । (६) हे देव ! कुमारवर मदनांकुशके लिए आप यह कन्या दें और वज्रसंघके साथ अविच्छिन्न स्नेह-सम्बन्ध जोड़ें (७)
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इसपर पृथु राजाने कहा कि दूत ! जिस वरका प्रथम गुण, कुलवंश ज्ञात न हो उसे मैं अपनी पुत्री कैसे दे सकता हूँ ? (८) अरे दूत ! इस तरह कहनेवाले तुम्हारा निग्रह करना योग्य है । अथवा जो दूसरेके द्वारा भेजा गया है वह दुर्धर होता है । (९) इस प्रकार राजा द्वारा कठोर वाणीसे अपमानित उस दूतने जाकर श्रीवत्रजंघसे सारी बात स्फुट रूपसे कही । (१०) दूतका वचन सुनकर वज्रजंघ राजा तैयार हुआ । सेना के साथ जाकर उसने पृथ्वीपुर देशका विध्वंस किया । ( ११ ) पृथु राजाके देशके विनाशसे रुष्ट व्याघ्ररथ नामक राजा युद्धमें प्रवृत्त हुआ । युद्धमें लड़ते हुए उसको वज्रजंघने पकड़ लिया । (१२) व्याघ्ररथ के पकड़े जाने और विनष्ट वैभववाले देशके बारेमें सुनकर पृथु राजाने लेखके साथ एक आदमीको मित्रके पास भेजा । (१३) पत्रमें लिखा हुआ समाचार जानकर पोतनपुरका बलवान् राजा मित्रको सहायता देनेके लिए बड़ी सेना के साथ आया । (१४) उधर व जंघ राजाने भी शीघ्र ही पौण्डरिकनगर में अपने पुत्रोंके पास सन्देशवाहक पुरुषको
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