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९०. मणोरमालंभपव्वं भवणङ्गणट्ठिया ते, सीया दट्ठूण परमसद्धाए । परमन्नेण सुकुसला, पडिलाहइ साहवो सवे ॥ ५७ ॥ दाऊण य आसीसं, नहिच्छियं मुणिवरा गया देसं । सत्तग्यो वि य नयरे, ठावेइ जिणिन्दपडिमाओ॥ ५८ ॥ सत्तरिसीण वि पडिमाउ, तत्थ फलएसु सन्निविट्टाओ । कञ्चणरयणमईओ, चउसु वि य दिसासु महुराए ॥५९॥ देसेण समं नयरी, सबा आसासिया भयविमुक्का । धण-धन्न-रयणपुण्णा, जाया महुरा सुरपुरि छ ॥ ६० ॥ तिण्णेव जोयणाई, दीहा नव परिरएण अहियाई । भवणसु उववणेसु य, रेहइ महुरा तलाएसु ॥ ६१ ॥ जाया नरिन्दसरिसा, कुडुम्बिया नरवई धणयतुल्ला । धम्म-ऽत्थ-कामनिरया, मणुया जिणसासणुज्जुत्ता ॥ ६२ ॥ महुरापुरीऍ एवं, आणाईसरियरिद्धिसंपन्नं । रज्जं अणोवमगुणं. सत्तग्यो भुञ्जइ जहिच्छं ॥ ६३ ॥
एयं तु जे सत्तमुणीण पर्च, सुणन्ति भावेण पसन्नचित्ता । ते रोगहीणा विगयन्तराया, हवन्ति लोए विमलंसुतुल्ला ॥ ६४ ।। ।। इइ पउमचरिए महुरानिवेसेविहाणं नाम एगूगनउयं पव्वं समत्तं ।।
९०. मणोरमालंभपव्वं अह वेयवनगवरे, दाहिणसेढीऍ अस्थि रयणपुरं । विज्जाहराण राया, रयणरहो तत्थ विक्खाओ॥ १ ॥ नामेण चन्दवयणा, तस्स पिया तीऍ कुच्छिसंभूया । रूव-गुण-जोबणधरी, मणोरमा सुरकुमारिसमा ॥ २ ॥
तं पेच्छिऊण राया, जोवणलायण्णकन्तिपडिपुण्णं । तीए वरस्स कज्जे, मन्तीहि समं कुणइ मन्तं ॥ ३ ॥ आंगनमें स्थित उन्हें देखकर अतिकुशल सीताने परम श्रद्धाके साथ सब साधुओंको उत्तम अन्नका दान दिया। (५७) आशीर्वाद देकर मुनिवर भी अभिलपित देशकी ओर गए। शत्रुघ्नने भी नगरमें प्रतिमाएँ स्थापित की। (५८) उस मथुराकी चारों दिशाओं में सप्तर्षियों को स्वर्ण और रत्नमय प्रतिमाएँ तख्तों पर स्थापित की गई। (५६) देशके साथ सारी नगरी भयसे मुक्त हो आश्वस्त हुई। धन, धन्य और रत्नोंसे परिपूर्ण मथुरा देवनगरी जैसी हो गई (६०) तीन योजन लम्बी और नौ योजनसे अधिक परिधिवाली मथुरा भवनों, उपवनों और सरोवरोंसे शोभित हो रही थी। (६१) वहाँ गृहस्थ राजाके जैसे थे, राजा कुबेर सरीखे थे, और धर्म, अर्थ एवं कामनें निरत मनुष्य जिनशासनमें उद्यमशीज थे। (६२) इस तरह मथुरापुरीमें आज्ञा, ऐश्वर्य एवं ऋद्धिसे सम्पन्न तथा अनुपम गुणयुक्त राज्य का शत्रुघ्न इच्छानुसार उपभोग करने लगा। (६३) इस तरह जो प्रसन्नचित्त होकर भावपूर्वक सप्तर्पियोंका पर्व सुनते हैं वे लोकमें रोगहीन, बाधारहित और विमल किरणोंवाले चन्द्र के समान उज्ज्वल होते हैं। (६४)
॥ पद्मचरितमें मथुरामें निवेश-विधि नामक नवासीवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥
९०. मनोरमाकी प्राप्ति चैताड्य पर्वतकी दक्षिण श्रेणी में रत्नपुर आया है। वहाँ विद्याधरोंका प्रसिद्ध राजा रत्नरथ था । (१) चन्द्रवदना नामकी उसकी प्रिया थी। उसकी कुक्षिसे उत्पन्न देवकन्या जैसी रूप, गुण और यौवनको धारण करनेवाली मनोरमा थी। (२) यौवन, लावण्य और कान्तिसे परिपूर्ण उसे देखकर राजाने उसके वरके लिए मंत्रियोंके साथ मंत्रणा की। (३) उस समय
१. आवासिया-प्रत्य०। २. सभिहाणं-प्रत्यः। ३. कतिसंपुन्नं-प्रत्य० ।
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