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६४.५३)
६४. सीयानिव्वासणपव्यं
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कत्थइ वणदवदर्दू, रणं मसिधूमधलिधसरियं । कत्थइ नोलदुमवणं, पवणाहयपचलियदलोहं ॥ ४० ॥ किलिकिलिकिलन्त कत्थइ, नानाविहमिलियसउणसंघट्ट । कत्थइ वाणरपउरं, वुक्कारुत्तसियमयजूहं ॥ ४१ ।। कत्थइ सावयबहुविह-अन्नोन्नावडियजुझसद्दालं । कत्थइ सीहभउद्य -चवलपलायन्तगयनिवहं ॥ ४२ ॥ कत्थइ महिसोरिकिय, कत्थइ डुहुडुहुडुहन्तनइसलिलं । कत्थइ पुलिन्दपउर, सहसा छुच्छु त्ति कयबोलं ॥४३॥ कत्थइ वेणुसमुट्टिय-फुलिङ्गजालाउलं धगधगेन्तं । कत्थइ खरपदणाय-कडयडभज्जन्तदुमगहणं ॥ ४४ ॥ कत्थइ किरि ति कत्थइ, भिरि त्ति कत्थइ छिरि ति रिंछाणं । सद्दो अइघोरयरो, भयनणओ सबसत्ताणं ॥४५॥ एयारिसविणिओगं, पेच्छन्ती जणयनन्दणी रणं । वच्चइ रहमारूढा, सुणइ यु अइमहुरयं सई ॥ ४६ ।। सीया कयन्तवयणं, पुच्छइ किं राहवस्स एस सरो । तेण वि य समक्खाय, सामिणि ! अह जण्हवीसद्दो ॥४७॥ ताव च्चिय संपत्ता, वइदेही जण्हविं विमलतोयं । पेच्छइ उभयतडट्ठिय-पायवकुसुमच्चियतरङ्गं ॥ १८ ॥ गाह-झस-मगर-कच्छभ-संघटुच्छलियवियडकल्लोलं । कल्लोलविद्दुमाय-निबद्धफेणावलीपउरं ॥ ४९ ॥ पउरवरकमलकेसर-नलिणीगुञ्जन्तमहुयरुग्गीयं । उग्गीयरवायण्णिय-सारङ्गनिविट्ठउभयतडं ॥ ५० ॥ उभयतडहंससारस-चक्कायरमन्तणेयपक्खिउलं । पक्खिउलजणियकलरव-समाउलाइण्णगयजूहं ॥ ५१ ।। गयजूहसमायड्डिय-विसमसमुवेल्लकमलसंघायं । संघायजलापूरिय-निज्झरणझरन्तसद्दालं ॥५२॥ एयारिसगुणकलियं, पेच्छन्ती नणयनन्दणी गङ्गं । उत्तिण्णा बरतुरया, परकूलं चेव संपत्ता ॥ ५३ ॥
मरुस्थल देखा । (३६) कहीं दावानलसे जला हुआ और स्याही और धूआँ जैसी धूलसे धूसरित अरण्य था, तो कहीं पवनसे आहत होने पर जिनके पत्तोंका समूह हिल रहा है ऐसे नीले वृक्षोंका वन था। (४०) कहीं नानाविध पक्षियोंका समूह एकत्रित हो चहचहा रहा था, तो कहीं प्रचुर वानरोंके चिचियानेसे मृगसमूह सन्त्रस्त था। (४१) कहीं अनेक प्रकारके जंगली जानवरोंके एक-दूसरे परके आक्रामक युद्धसे वन शब्दायमान था, तो कहीं सिंहके भयसे हैरान हो जल्दी जल्दी भागता हुआ गज-समूह था । (४२) कहीं भैंसा डिडकारता था, कहीं नदीका पानी कलकल ध्वनि कर रहा था, कहीं सहसा 'छू-छू' आवाज करनेवाली झीलोंसे वन भरा हुआ था। (४३) कहीं बाँसोंमें उठी हुई अग्निज्वालासे व्याप्त होनेके कारण धग-धग् आवाज आ रही थी। कहीं तेज हवासे आहत हो वृक्षसमूह कडू-कडू करते हुए टूट रहा था। (४४) कहीं किर् , कहीं हिर, तो कहीं छिर-भालुओंकी ऐसी अत्यन्त भयंकर तथा सब प्राणियोंको भय पैदा करनेवाली आवाज आ रही थी। (४५)
ऐसे कार्योंको देखती हुई रथारूढ सीता अरण्यमें से जा रही थी। उस समय उसने एक अतिमधुर ध्वनि सुनी। (४६) सीताने कृतान्तबदनसे पूछा कि क्या वह रामका शब्द है ? इस पर उसने कहा कि, हे स्वामिनी! यह गंगाकी ध्वनि है। (४७) तब वैदेही निर्मल जलवाली गंगाके पास पहुँची। उसने दोनों किनारों पर स्थित पेड़ोंके फूलोंसे अर्चित तरंगोंवाली गंगाको देखा । (४८) प्राह, मत्स्य, मगरमच्छ तथा कछुओंके समूहके उछलनेसे विकट तरंगोंवाली, तरंगोंमें आये हुए मूंगोंसे आहत, बंधी हुई फेनकी पंक्तिसे व्याप्त, बहुतसे उत्तम कमलोंके केसरमें तथा कमलिनियोंमें गुंजार करनेवाले भौरोंसे गीतमय, गीतकी ध्वनि सुनकर जिसके दोनों तटों पर हिरन बैठे हैं, दोनों तटों पर हंस, सारस, चक्रवाक आदि क्रीड़ा करते हुए अनेक पक्षी-कुलोंसे युक्त, पक्षीकुलसे उत्पन्न कलरवसे व्याकुल एवं खिन्न गज समूहवाली, गज-समूहके द्वारा खींचे गये और ऊपर-नीचे उठते हुए कमल संघातसे व्याप्त, जल-समूहसे भरे और बहते हुए झरनोंसे शब्दायमान-ऐसे गुणोंसे सम्पन्न गंगाको जब सीता देख रही थी तब घोड़ोंने उसे पार कर दिया और वह दूसरे किनारे पर भी पहुँच गई। (४९-५३)
१. .यडहुडुहियडुहंतगिरिणईसलिलं-प्रत्य० । २. जणणो-प्रत्य० ।
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