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पउमचरियं
[६५.६४अह सोमवंसतणओ, राया गयवाहणो ति नामेणं । महिला तस्स सुबन्धू, तीए हंकुच्छिसंभूओ ।। ६४ ॥ अहयं तु वज्जनको, पुण्डरियपुराहिवो जिणाणुरओ । धम्मविहाणेण तुम, मह बहिणी होहि निक्खुतं ॥ ६५ ॥ उद्धेहि मज्झ नयरं, वच्चसु तत्थेव चिट्ठमाणीए । तुह पच्छायवतविओ, गवेसणं काहिई रामो ॥ ६६ ॥ महुरवयणेहि एवं, सीया संथाविया नरवईणं । अह धम्मबन्धवत्तं, लद्धणं सा धिई पत्ता ॥ ६७ ।।
अहिगयतवसम्मादिट्टिदाणेक्कचित्तं, समणमिव गुण8 सीलसंभारपुण्णं । परजणउवयारिं वच्छलं धम्मबन्धु, विमलजस निहाणं को ण सिरिहाइ वीरं? ॥ ६८ ॥
॥ इइ पउमचरिए सीयासमासासणं नाम पञ्चाणउयं पव्वं समत्तं ।।
___९६. रामसोयपव्वं अह तक्खणमि सिबिया, समाणिया वरविमाणसमसोहा । लम्बूस-चन्द-चामर-दप्पण-चित्तंसुयसणाहा ॥ १ ॥ मयहरयपरिमिया सा, आरूढा जणय नन्दिणी सिवियं । वच्चइ परिचिन्तन्ती, कम्मस्स विचित्तया एसा ॥ २ ॥ दिवसेसु तीसु रणं, बोलेऊणं च पाविया विसयं । बहुगाम-नगर-पट्टण-समाउलं जण-धणाइण्णं ॥३॥ पोक्खरिणि-वावि-दीहिय-आरामुज्जाण-काणणसमिद्ध। देसं पसंसमाणी, पोण्डरियपुरं गया सोया ॥ ४ ॥
उवसोहिए समत्थे, पोण्डरियपुरे वियड्डनणपउरे । पइसइ नणयस्स सुया, नायरलोएण दीसन्ती ॥ ५ ॥ थी। उसको कुझिसे मैं उत्पन्न हुआ हूँ। (६४) पोण्डरिक नगरोका स्वामा मैं वनजंघ जिनेश्वर भगवान्में अनुरक्त हूँ। धर्मविधिसे तुम अवश्य हो मेरी बहन हो । (६५) उठो ओर मेरे नगरमें चलो। वहीं ठहरी हुई तुम्हारी पश्चात्तापसे तप्त राम गवेषणा करेंगे । (६६)
__ इस तरह मधुर वचनोंसे राजाने सौताको सान्त्वना दो। ओर धर्म बन्धुको पाकर उसने धैर्य धारण किया। (६७) तप एवं सम्यग्दृष्टि प्राप्त करके दान में दत्तचित्त, श्रमगको भाँति गुणोंसे सम्पन्न, शील-समूहसे पूर्ण, दूसरे लोगोंका उपकार करनेवाले वात्सल्य युक्त, धर्मबन्धु तथा निर्मल यशके निधान वीर की कौन नहीं सराहना करता ? (६८)
॥ पद्म चरितमें 'सीताको आश्वासन' नामका पचानवेवाँ पर्व समाप्त हुआ |
९६. रामका शोक इसके पश्चात् शीघ्र ही उत्तम विमानके समान शोभावली तथा लम्बूप (गेंदके आकारका एक आभूषण) से युक्त डोलते हुए चँवर, दर्पण और चित्रित वस्त्रोंसे युक्त शिविका लाई गई। (१) कंचुकियोंसे घिरी हुई वह सीता शिबिका पर आरूढ़ हुई ओर कर्मकी इस विचित्रताका चिन्तन करती हुई चली। (२) तीन दिनमें वन पार करके वह अनेक ग्राम, नगर एवं पत्तन तथा जन एवं धनसे व्याप्त देशमें पहुँची। (३) पुष्करिणी, बावड़ी, दीर्घिका, आराम एवं बारा-बगीचोंसे समृद्ध उस देशकी प्रशंसा करती हुई सीता पौण्डरिकपुरमें पहुँची। (४) सारेके सारे सजाये हुए और विदग्धजनोंसे व्याप्त उस पौण्डरिकपुर में नगरजनों द्वारा देखी जाती सीताने प्रवेश किया। (५) बड़े-बड़े ढोल, मेरी झल्लरी, आइङ्ग, मृदंग और शंखोंकी
१. हं गन्भसं०-प्रत्य। २. .थाविऊण नरवडणा-मु.। ३. .सनिदाएं-मु०। ४. धीरं-प्रत्य। ५. यणपणी-प्रत्य । ६. पविसइ-प्रत्य.।
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