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पउमचरिय
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वाणारसी सुपासं, कोसम्बीसंभवं च पउमाभं । भद्दिलपुर संभूयं, सीयलसामिं विगयमोहं ॥ सेयंसं सीहपुरे, मलिं मिहिलाऍ गयपुरे सन्ति । नायं कुन्थुं च अरं, तत्थेव य कुञ्जरपुरंमि ॥ जायं कुंसग्गनयरे, मुणिसुवयसामियं जियभवोहं । जस्स इह धम्मचक्क, अज्ज वि पज्जलइ रवितेयं एयाइ जिणवराणं, जम्मट्टाणाइ तुज्न सिट्टाई | पणमसु भावेण पिए !, अन्नाणि वि अइसयर्कराई ॥ पुष्पविमाणारूढा, मह पासत्था नहेण अमरगिरिं । गन्तूण पणमसु पिए !, सिद्धाययणाइ दिखाई ॥ ३७ ॥ कोट्टिम-अकोट्टिमाईं, निणवरभवणाइ एत्थ पुहइयले । अहिवन्दिऊण पुणरवि; निययपुरिं आगमीहामि ॥३८॥ एक्को वि नमोक्कारो, भावेण कओ निणिन्दचन्दाणं । मोएइ सो हु जीवं, घणपावपसङ्ग नोगाओ ॥ ३९ ॥ पियमेण एवं भणिया हं तत्थ सुमणसा जाया । अच्छामि जिणहराणं, चिन्तती दरिसणं निचं ॥ ४० ॥ चलियस मए समयं निणहरपरिवन्दणुस्सुयमणस्स । दइयस्स ताव वत्ता, जणपरिवाई लहुं पत्ता ॥ ४१ ॥ अववायभीयएणं तत्तो परिचिन्तियं मह पिएणं । लोगो सहाववंको, न अन्नहा जाइ संतोसं ॥ तम्हावरं खु एसा, सीया नेऊण छड्डिया रण्णे । न य मज्झ जसस्स इहं, होउ खणेक्कं पि वाघाओ ॥ साहं तेण नराहिब !, जगपरिवायस्स भीयहियएणं । परिचत्ता विह रण्णे, दोसविमुक्का अकयपुण्णा ॥ उत्तमकुलस्स लोए, न य एयं खत्तियस्स अणुसरिसं । बहुसत्थपण्डियस्स य, धम्मठिहं जाणमाणस्स ॥ एयं चिय वित्तन्तं परिकहिऊणं तओ जणयधूया । माणसजलणुम्हविया, रोवइ कलुणेण सद्देणं ॥ रोयन्ति नणयसुयं दट्ठूण नराहिवो किवावन्नो । संथावणमइकुसलो, नंपइ एयाइ वयणाई ॥
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वीतमोह शाम का जन्म हुआ है । (३३) सिंहपुर में श्रेयांसनाथ, मिथिला में मल्लि और हस्तिनापुरमें शांतिनाथ हुए हैं । इसी प्रकार हस्तिनापुरमें कुंथुनाथ और अरनाथ हुए हैं । (३४) संसार को जीतनेवाले मुनिसुव्रतस्वामी कुशामपुरमें हुए, जिनका धर्मचन्द्र आज भी सूर्यके तेजको भाँति प्रज्वलित हो रहा है । (३५) हे प्रिये ! जिनवरोंके जन्म स्थान तुझे कहे । अतिशयकर दूसरे स्थानों को भी तुम भावपूर्वक प्रणाम करना । ( ३६ ) हे प्रिये ! मेरे साथ पुष्पक विमानमें आरूढ़ होकर ओर आकाश मार्गसे सुमेरु पर्वत पर जाकर दिव्य सिद्ध भवनों करना। (३७) इस हुए कृत्रिम और अकृत्रिम जिन करके पुनः अपनी नगरी में हम आ जायँगे । ( ३ ) जिनवरों को भावपूर्वक एक भी नमस्कार करनेसे वह जीवको घने पाप-प्रसंग के योग से मुक्त करता है । (३६) प्रियतम के द्वारा इस तरह कही गई मैं प्रसन्न हुई । जिनमन्दिरोंके दर्शन के बारेमें मैं नित्य सोचती रहती थी । (४०) मेरे साथ जानेवाले तथा जिनमन्दिरों में वन्दन के लिए उत्सुकमना पतिके पास उस समय अचानक जन परिवादको कथा आई । ( ४१ ) अपवाद से डरनेवाले मेरे पतिने तत्र सोचा कि स्वभावसे ही टेढ़े लोग दूसरी तरहसे सन्तुष्ट नहीं होते । (४२) अतएव यही अच्छा है कि संता को ले जाकर अरण्यमें छोड़ दिया जाय । इससे मेरे यशको यहाँ एक क्षणके लिए भी व्याघात नहीं होगा । (४३) हे नराधिप ! जन परिवाद के कारण हृदयमें भीत उनके द्वारा निर्दोष किन्तु अपुण्यशालिनी मैं इस अरण्य में परित्यक्त हुई हूँ । (४४) उत्तम कुलमें उत्पन्न, बहुत से शास्त्रों में पण्डित तथा धर्म स्थ जाननेवाले क्षत्रियके लिए लोक में ऐसा उचित नहीं है । (४५)
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ऐसा वृत्तान्त कहकर मनकी आगसे पीड़ित सीता करुण शब्द में रोने लगी । (४६) जनकसुताको रोते देख दयालु तथा सान्त्वना देनेमें अतिकुशल राजाने ये वचन कहे (४७) जिन शासन में तीव्र भक्ति रखनेवाली हे सीते ! तुम मत रोओ
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१. महिलाए - मु० । २. कुसुमानयरे — मु० । ३. ० कयाई – मु० । ४. सव्वाई - प्रत्य० । ५. आगमिस्सामि – प्रत्य० । ६. ० जोगाणं प्रत्य० । ७. ०त्ता लहु रण्णे प्रत्य० ।
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