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पउमचरियं
नाव श्विय उल्लाबं, देन्ति नरिन्दस्स निययचोरभडा । ताव य वरजुवईए, सुणइ रुवन्तीऍ केलुणसरं ॥ ३ ॥ सरमण्डलविन्नाओ, भणइ निवो जा इहं रुवइ मुद्धा । सा गुबिणी निरुत्तं, पउमस्स भवे महादेवी ॥ ४ ॥ भणिओ भिचेहि पहू, एव इमं जं तुमे समुल्लवियं । न कयाइ अलियवयणं, देव ! सुयं जंपमाणस्स ॥ ५ ॥ नाव य एसालावो, वट्टह तावं नरा समणुपत्ता । पेच्छन्ति जणयतणयं, पुच्छन्ति य का तुमं भद्दे ? ॥ ६ ॥ सा पेच्छिऊण पुरिसे, बहवे सन्नद्धबद्धतोणीरे । भयविहलवेविरङ्गी, ताणाभरणं पणामेह ॥ ७ ॥ तेहि विसा पडिभणिया, कि अम्ह विहसणेहि एएहिं । चिट्ठन्तु तुज्झ लच्छी !, ववगयसोगा इओ होहि ॥८॥ पुणरवि भणन्ति सुन्दरि !, मोत्तु सोगं भयं च एत्ताहे । जंपसु सुपसन्नमणा, किष्ण मुणसि नरवई एयं ॥ ९ ॥ पुण्डरियपुराहिवई, एसो इहं वज्जजङ्घनरवसभो । चारित नाण- दंसण - बहुगुणनिलओ निणमयं मि ॥ १० ॥ सङ्काइदोसरहिओ, निच्चं निणवयणगहियपरमत्थो । परउवयारसमत्थो, सरणागयवच्छलो वीरो ॥ 'दीणाईण पुणो वि य, विसेसओ कलुणकारणुज्जुत्तो । पडिवक्खगयमइन्दो, सबकलाणं च पारगओ ॥ एयस्स अपरिमेया, देवि ! गुणा को इहं भणिउकामो । पुरिसो सयलतिहुयणे, जो वि महाबुद्धिसंपन्नो ॥ नाव य एसालावो, वट्टह तावागओ नरवरिन्दो | अवयरिय करेणूए, करेइ विणयं नहानोम्ां ॥ तत्थ निविट्ठो जंपइ, वज्जमओ सो नरो न संदेहो । इह मोतु ं कल्लाणि, जो जीवन्तो गओ सगिहं ॥ एत्थन्तरे पत्तो, मन्ती संथाविऊण नणयसुयं । नामेण वज्जनो, एसो पुण्डरियपुरसामी ॥
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१. ० चारु भडा--- प्रत्य० । २. महुरसरं मु० । ५. पिच्छंति कयं ( 2 ) जलिउडा, रमम्मि य का तुमं प्रत्य० । होहि प्रत्य० । ९. दीणाण पुण विसेसं अहियं चिय कलण० - प्रत्य० ।
दीखते हो । (२) जबतक राजाको अपने चारभट जवाब दें तब तक तो उसने रोती हुई वर युवतीका करुण स्वर: सुना । (३) स्वरको पहचाननेवाले राजाने कहा कि जो स्त्री यहाँ पर रो रही है, वह अवश्य ही रामकी गर्भवती पटरानी होगी । (४) भृत्योंने कहा कि, प्रभो ! आपने जैसा कहा वैसा ही होगा । हे देव ! आपको कभी अलीकवचन कहते नहीं सुना । (५) जब ऐसा वार्तालाप हो रहा था तब लोग सीताके पास गये, उसे देखा और पूछा कि, भद्रे ! तुम कौन हो ? (६) कवच पहने और तूणीर बाँधे हुए बहुतसे पुरुषों को देखकर भयसे विह्वल और काँपते हुए शरीरवाली वह उन्हें. आभरण देने लगी । (७) उन्होंने उसे कहा कि इन आभूषणोंसे हमें क्या प्रयोजन ? तुम्हारी लक्ष्मी तुम्हारे पास रहे । अब तुम शोकरहित बनो । (८) उन्होंने और भी कहा कि, हे सुन्दरी ! शोक और भयका परित्याग करके और मनमें प्रसन्न हो कहो कि इस राजाको क्या तुम नहीं पहचानतीं ? (E) यह पौंडरिकपुरके स्वामी और जिनधर्म में कहे गये चारित्र, ज्ञान: और दर्शन रूप अनेक गुणोंके धाम जैसे वज्रजंघ नामके राजा हैं । (१०) यह वीर शंका आदि दोषसे रहित, नित्य जिनवचनका मर्म जाननेवाले, परोपकार में समर्थ तथा शरण में आये हुए पर वात्सल्यभाव रखनेवाले हैं । (११) यह दीनजनों पर विशेष रूपसे करुणा करने में उद्यत रहते हैं । शत्रु रूपी हाथी के लिए यह सिंह जैसे तथा सब कलाओंमें कुशल हैं । (१२) हे देवी! इस सारे त्रिभुवनमें ऐसा अत्यन्त बुद्धिसम्पन्न पुरुष कौन है जो इसके असंख्येय गुणों का बखान यहाँ करनेकी इच्छा करे । (१३)
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जब यह बातचीत हो रही थी तब राजा वहाँ आ पहुँचा हाथी परसे नीचे उतरकर उसने यथायोग्य विनय किया । (१४) वहाँ बैठकर उसने कहा कि वह मनुष्य निःसंदेह वज्रमय होगा जो तुम कल्याणी स्त्रीका परित्याग करके अपने घर पर जीवित ही लौट गया है । (१५) तब सीताको सान्त्वना देकर मंत्रीने कहा कि यह वज्रजंघ नामके पौण्डरिक नगरके स्वामी हैं । (१६) हे वत्से ? यह बीर पाँच अणुव्रतों को धारण करनेवाले, समस्त उत्तम गुणों के समूह रूप, देव एवं गुरुके पूजनमें
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• विलाया— प्रत्य० । नाणाभ० - प्रत्य० ।
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४. तुमं समुल्लवसि । ७. तेहिं सा प्रत्य० ।
न- प्रत्य० । ८०गा तुम
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