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६५. सीयासमासासणपव्वं पश्चाणुबयधारो, वच्छे सम्मत्तउत्तमगुणोहो । देव-गुरुपूयणरओ, साहम्मियवच्छलो वीरो ॥ १७ ॥ एवं चिय परिकहिए, सीया तो.पुच्छिया नरवईणं । साहेहि कस्स दुहिया ?, कस्स व महिला तुमं लच्छी ? ॥१८॥ नं एव पुच्छिया सा, सीया तो भणइ दीणमुहकमला । अइदीहा मज्झ कहा, नरवइ ! निसुणेहि संखेवं ॥१९॥ नणयनरिन्दस्स सुया, बहिणी भामण्डलस्स सीया है। दसरहनिवस्स सुण्हा, महिला पुण रामदेवस्स ॥ २० ॥ कइगइवरदाणनिहे, दाउं भरहस्स निययरज सो । अणरण्णपत्थिवसओ, पवइओ. जायसंवेगो ॥ २१ ॥ रामेण लक्खणेण य, समं गया दण्डयं महारणं । संबुक्कवहे नराहिव, हरिया हं रक्खसिन्देणं ॥ २२ ॥ अह ते बलेण सहिया, नहेण गन्तूण राम-सुग्गीवा । लङ्कापुरीऍ जुझं, कुणन्ति समयं दहमुहेणं ॥ २३ ॥ बहुभडनीयन्तकरे, समरे लङ्काहिवं विवाएउं । रामेण आणिया है, निययपुरि परम विभवेणं ॥ २४ ॥ दहण रामदेवं, भरहो संवेगनायसब्भावो । घेत्तण य पवजं, सिद्धिसुहं चेव संपत्तो ॥ २५ ॥ सुयसोगसमावन्ना, पवजं केगई . वि घेत्तुणं । सम्माराहियचरिया, तियसविमाणुत्तमं पत्ता ॥ २६ ॥ लोगो वि अमज्जाओ, जंपइ अलियं अवण्णवायं मे । जह रावणकयसङ्गा, पउमेण इहाणिया सोया ॥ २७ ॥ सुणिऊण लोगवयणं, पउमेणं अयसदोसभीएणं । जिणवन्दणाभिलासी, डोहलयनिहेणऽहं भणिया ॥ २८ ॥ मा होहि उस्सुयमणा, सुन्दरि ! जिणचेइयाइ विविहाई । वन्दावेमि सहीणो, अहियं सुर-असुरनमियाइं ॥२९॥ गन्तूण पिए! पढम, अट्ठावयपबए जिणं उसहं । वन्दामि तुमे सहिओ, जस्स इहं जम्मणं नयरे ॥ ३० ॥ अजियं सुमइमणन्तं, तहेव अहिनन्दणं इह पुरीए । जायं चिय कम्पिल्ले, विमलं धम्मं च रयणपुरे ॥ ३१ ॥
चम्पाएँ वासुपुर्ज, सावत्थी संभवं समुप्पन्न । चन्दपहं चन्दपुरे, कायन्दीए कुसुमदन्तं ॥ ३२ ॥ निरत तथा साधर्मिक भाइयोंपर वात्सल्य भाव रखनेवाला है। (१७) इस प्रकार कहने पर राजाने सीतासे पूछा कि, हे लक्ष्मी ! तुम किसकी पुत्री और किसकी पत्नी हो ? (१८)
इस प्रकार पूछने पर कुम्हलाये हुए मुखकमलवाली सीताने कहा कि, हे राजन् ! मेरी कथा बहुत लम्बी है, किन्तु संक्षेपमें सुनो । (१६) मैं जनकराजाकी पुत्री, भामण्डलकी बहन, दशरथ राजाकी पुत्रवधू तथा रामकी पत्नी सीता हूँ। (२०) कैकेईके वरदानके बहानेसे भरतको अपना राज्य देकर अनरण्य राजाके उस पुत्र दशरथने वैराग्य उत्पन्न होने पर प्रव्रज्या ली । (२१) राम और लक्ष्मणके साथ मैं दण्डक महारण्यमें गई। हे नराधिप! शम्बूकके वधमें राक्षसेन्द्र रावणके द्वारा मैं अपहृत हुई । (२२) तब सेनाके साथ आकाशमार्गसे जाकर राम और लक्ष्मणने लंकापुरीमें रावणके साथ युद्ध किया। (२३) बहुत सुभटोंके प्राणोंका अन्त करनेवाले उस युद्ध में रावणको मारकर राम मुझे अपनी नगरी में परम विभवके साथ ले गये । (२४) रामको देखकर संवेगके कारण शुभ भाव जिसमें पैदा हुए हैं ऐसे भरतने प्रव्रज्या ली और सिद्धि-सुख भी प्राप्त किया । (२५) पुत्रके शोकसे युक्त कैकेईने भी दीक्षा ली। चारित्रकी सम्यक् आराधना करके उसने उत्तम देवविमानमें जन्म लिया । (२६) मर्यादाहीन लोग मेरे बारेमें झूठी निन्दा करने लगे कि रावणके साथ संग करनेवाली सीताको राम यहाँ लाये हैं। (२७) लोगोंका कहना सुन अपयशके दोषसे भीत रामने दोहदके बहाने जिनवन्दनकी अभिलाषा रखनेवाली मुझे कहा कि, हे सुन्दरी ! तुम मनमें चिन्तित मत हो। सुर और असुरों द्वारा वन्दित ऐसे विविध जिनमन्दिरोंका स्वाधीन रूपसे मैं तुम्हें खूब दर्शन कराऊँगा । (२८-२६)
हे प्रिये! जिनका इस नगरमें जन्म हुआ था उन प्रथम ऋषभ जिनका अष्टापद पर्वतके ऊपर तुम्हारे साथ मैं दर्शन करूँगा । (३०) अजितनाथ, सुमति नाथ, अनन्तनाथ अभिनन्दन स्वामी इस नगरीमें हुए हैं। काम्पिल्यमें विमलनाथ. तथा रत्नपुरमें धर्मनाथ हुए हैं। (३१) चम्पामें वासुपूज्य, और श्रावस्ती में सम्भवनाथ पैदा हुए हैं। चन्द्रप्रभ चन्द्रपुरमें और काकन्दीमें पुष्पदन्त हुए हैं। (३२) वाराणसी में सुपार्थनाथ, और कौशाम्बी में पद्मप्रभ उत्पन्न हुए हैं। भद्दिलपुरमें
१. केगइ०-प्रत्य० । २. मविणएण-प्रत्यः । ६३
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