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६६. रामसोयपव्वं
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कम्मं ॥
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पुच्छइ पुणो पुणो च्चिय, पउमो सेणावईं पयलियंसू । कह सा घोरारण्णे, धरिहिइ पाणा जणयधूया ! ॥ एव भणिओ कयन्तो, लज्जाभरपेल्लिओ समुल्लावं । न य देइ ताव राम्रो, कन्तं सरिउं गओ मोहं ॥ एयन्तरम्मि पत्तो, सहसा लच्छीहरो पउमनाहं । आसासिऊण नंपइ, नाह ! निसामेहि मे वयणं ॥ धीरं त्तणं पवज्जसु, सामिय! मोत्तूण सोगसंबन्धं । उवणमइ पुबविहियं, लोयस्स सुहाऽसुहं आयासे गिरिसिहरे, नले थले दारुणे महारणे । जीवो संकडपडिओ, रक्खिज्जइ पुबसुकणं ॥ अह पुण पायस्युदर, रक्खज्जन्तो वि धीरपुरिसेहिं । जन्तू मरइ निरुतं, संसारठिई इहं लोए ॥ एवं सो पउमाभो, पसाइओ लक्खणेण कुसलेणं । छड्डेइ किंचि सोयं, देइ मणं निययकरणिज्जे ॥ सीयाऍ गुणसमूहं, सुमरन्तो जणवओ नयरवासी । रुयइ पयलन्तनेतो, अईव सीलं पसंसन्तो ॥ वीणा - मुइङ्ग - तिसरिय-सरवुग्गीय वज्जिया नयरी | जाया कन्दियमुहला, तद्दियहं सोयसंतता ॥ रामेण भद्दकलसो, भणिओ सीयाऍ पेयकरणिज्जं । सिग्घं करेहि विउलं, दाणं च नहिच्छियं देहि ॥ नं आणवेसि सामि !, भणिऊणं एव निग्गओ तुरियं । सबं पि भद्दकलसो, करेइ दाणाइकरणिज्जं ॥ जुवईण सहस्सेहि, अहि अणुसंतयं पि परिकिण्णो । पउमो सीएक्कमणो, सिविणे चि पुणो पुणो सरइ ॥ एवं सणियं सणियं, सीयासोए गए विरलभावं । सेसमहिलासु पउमो, कह कह विधि समणुपत्तो ॥ एवं हलहर-चक्कहरा महिडिजुत्ता नरिन्दचकहरा । भुञ्जन्ता विसयसुहं विमलनसादेतसयलविसयसुहं ॥ ॥ इइ पउमचरिए रामसोयविहाणं नाम छन्नउयं पव्वं समत्तं ॥
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इसप्रकार आँसू बहाते हुए रामने सेनापतिसे बारम्बार पूछा कि उस भयंकर जंगलमें वह सोता प्राण कैसे धारण करेगी ? (३६) इस तरह कहे गये कृतान्तवदनने लज्जाके भार से दबकर जब जवाब नहीं दिया तब तो पत्नीको याद करके राम वेहोश हो गये । (३७) उस समय सहसा लक्ष्मण राम के पास आया। उसने आश्वासन देकर कहा कि, हे नाथ ! मेरा कहना सुनें । (३८) हे स्वामी ! शोकका परित्याग करके आप धीरज धारण करें। पूर्व में किया गया शुभ अथवा अशुभ कर्म लोगों को प्राप्त होता है । (३९) आकाशमें, पर्वत के शिखर पर, जलमें, स्थलमें अथवा भयंकर वन में संकट में पड़ा हुआ जीव पूर्वकृत सुकृतसे बचता है । (४०) पापका उदय होने पर धीर पुरुषों द्वारा रक्षित प्राणी भी अवश्य मरता है। इस लोकमें संसार की यही स्थिति है । ( ४१ )
इस तरह कुशल लक्ष्मणके द्वारा प्रसादित रामने कुछ शोक छोड़ा ओर अपने कार्यमें मन लगाया । (४२) सीता के गुणों को याद करके उसके शीलकी भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए लोग आँखों में आँसू ला कर रोते थे । (४३) उस दिन से वीणा, मृदंग, त्रिसरक और बंसी की ध्वनियुक्त संगीत से रहित वह नगरी शोक सन्तप्त हो आक्रन्दनसे मुखर हो उठी । (४४) रामने भद्रकलशसे कहा कि सीताका प्रेतकर्म जल्दी करो और विपुल एवं यथेच्छ दान दो । (४५) हे स्वामी ! आपको जो आज्ञा । ऐसा कहकर भद्रकलश जल्दी ही गया और दानादि सब कार्य किया । (४६ ) आठ हजार युवतियों से सतत घिरे रहने पर भी एकमात्र सीतामें जिनका मन लगा हुआ है ऐसे राम स्वप्न में भी उसे पुनः पुनः याद करते थे । (४७) इस तरह शनैः शनैः सीताका शोक कम होने पर रामने शेष महिलाओंसे कीसी तरह धैर्य प्राप्त किया । ( ४ ) इस प्रकार बड़े भारो ऐश्वर्य से युक्त, राजाओं में चक्रवर्ती जैसे तथा निर्मल यशवाले हलवर ओर चक्रवर ( राम और लक्ष्मण ) समय देशको सुख देते हुए विषयसुखका उपभोग करने लगे । (४६)
॥ पद्मचरित में रामके शोकका विधान नामक छानवेवाँ पर्व समाप्त हुआ ||
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१. वीरत प्रत्य० । २. जलप जले दारु० - प्रत्य० ।
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