________________
९४.२३) ९४. सीयानिव्वासणपव्य
४८६ उसम-भरहोवमेहिं, इक्खागकुलुत्तमेहि बहवेहिं । लवणोयहिपेरन्ता, भुत्ता पुहई नरिन्देहिं ॥ ८ ॥ आइच्चनसाईणं, निवईण रणे अदिन्नपिट्टीणं । ताण जसेण तिहुयणं, अलंकियं वित्थयबलेणं ॥ ९ ॥ एयं इक्खागकुलं, ससिकरधवलं तिलोयविक्खायं । मज्झ घरिणीऍ लक्खण!, कलङ्कियं अयसपङ्केणं ॥ १० ॥ ताव य किंचि उवाय, करेहि सोमित्ति! कालपरिहोणं । नाव न वि हवइ मज्झ वि, दोसो सीयाववाएणं ॥ ११ ॥ अवि परिचयामि सीयं, निद्दोसं नइ वि सीलसंपन्न । न य इच्छामि खणेक. अकित्तिमलकलुसियं जीयं ॥ १२ ॥ अह भणइ लच्छिनिलओ. नरवइ । मा एव दक्खिओहोहि । पिसुणवयणेण संपइ.मा चयस महासईसीयं ॥ १३ ।। लोगो कुडिलसहावो, परदोसग्गहणनिययतत्तिल्लो । अज्जवनणमच्छरिओ, दुग्गहहियओ पदुट्टो य ॥ १४ ॥ भणइ तओ बलदेवो, एव इमं जह तुमं समुलवसि । किं पुण लोगविरुद्धं, अयसकलकं न इच्छामि ॥१५॥ किं तस्स कीरइ इह, समत्थरज्जेण जीविएणं वा । जस्स पवादो बहुओ. भमइ च्चियं णं सया अयसो ! ॥१६॥ किं तेण भुयबलेणं, भीयाणं जं भयं न वारेइ ? । नाणेण तेण किं वा, जेणऽप्पाणं न विन्नायं ? ॥ १७ ॥ तावऽच्छउ जणवाओ, दोसो मह अस्थि एत्थ नियमेणं । ना परपुरिसेण हिया, निययघरं आणिया सीया ॥१८॥ पउमुज्जाणठियाए, जाइज्जन्तीऍ रक्खसिन्देणं । सीयाएँ निच्छएणं, तं चिय अणुमन्नियं वयणं ॥ १९ ॥ एवं समाउलमणो, सेणाणीयं कयन्तवयणं सो। आणवह गब्भिणीयं, सीय छड्डेहि आरण्णे ॥ २० ॥ एव भणिए पवुत्तो, सोमित्ती राहवं कयपणामो । न य-देव! तुज्झ जुत्तं, परिचइऊणं जणयधूयं ॥ २१ ॥ परपुरिसदरिसणेणं, न य दोसो हवइ नाह ! जुवईणं । तम्हा देव ! पसज्जसु, मुञ्चसु एवं असग्गाहं ॥ २२ ॥
पउमो भणइ कणिटुं, एत्तो पुरओ न किञ्चि वत्तछ । छड्डेमि निच्छएणं, सीयं अववायभीओ है ॥ २३ ॥ बहुतसे उत्तम राजाओंने लवणसागर तककी पृथ्वीका उपभोग किया है। (5) विस्तृत सैन्यवाले तथा युद्ध में पीठ न देनेबाले आदित्ययशा आदि राजा हुए हैं। उनके यशसे त्रिभुवन अलंकृत हुआ है। (६) हे लक्ष्मण ! चन्द्रमाकी किरणोंके समान धवल तथा त्रिलोकमें विख्यात ऐसे इक्ष्वाकुकुलको मेरी स्त्रीने अयशके पंकसे मलिन किया है। (१०) हे लक्ष्मण! सीताके अपवादसे जबतक मुझे दोष नहीं लगता तब तक, समय बीतनेसे पहले, तुम कोई उपाय करो। (१२) यदि सीता नीदषि और शीलसम्पन्न हो तो भी में उसका त्याग कर सकता हूँ, किन्तु अपयशके मलसे कलुषित जीवन में एक क्षणके लिए भी नहीं चाहता। (२) इस पर लक्ष्मण ने कहा कि, हे राजन् ! श्राप इस तरह दुःखी न हों। दुर्जनोंके वचनसे इस समय आप महासती सीताका त्याग न करें। (१३) लोग तो कुटिल स्वभावके, दूसरेके दोषोंको ग्रहण करनेमें सदैव तत्पर, सरल लोगोंके द्वेषी, हृदयमें दुराग्रहयुक्त तथा अतिदुष्ट होते हैं। (१४) तब बलदेव रामने कहा कि तुम जैसा कहते हो वैसा ही है, फिर भी लोकविरुद्ध अपयशका कलंक मैं नहीं चाहता। (१५) इस संसार में समस्त राज्य या जीवनको लेकर वह व्यक्ति क्या कर जिसक कि अयशका प्रवाद सदा घूमता हो। (१६) उस भुजबलका क्या फायदा जो भयभीत लोगोंक भयका निवारण नहीं करता। उस ज्ञानसे क्या लाभ जिससे आत्मा न पहचानी जाय । (१७) लोकप्रवादकी बात तो दूर रही। परपुरुष द्वारा जो अपहृत थी उस सीताको मैं अपने घरमें लाया हूँ इसीमें वस्तुतः मेरा दोष रहा है। (१८) पद्मोद्यानमें स्थित और राक्षसेन्द्र रावणके द्वारा याचित सीताने अवश्य ही उसके वचनको मान्य रखा होगा । (१९)
तब मनमें व्याकुल रामने कृतान्तवदन नामक सेनापतिको आज्ञा दी कि गर्भिणी सीताको अरण्यमें छोड़ दो। (२०) ऐसा कहने पर लक्ष्मणने प्रणाम करके रामसे कहा कि हे देव! सीताका परित्याग करना आपके लिए ठीक नहीं है । (२१) हे नाथ! परपुरुषके दर्शनसे युवतियोंको दोष नहीं लगता। अतः हे देव! आप प्रसन्न हों और इस असदाग्रहका त्याग करें। (२२) इस पर रामने छोटे भाईसे कहा कि इससे आगे कुछ भी मत बोलना। अपवादसे भीत मैं अवश्य ही सीताका परित्याग करूँगा । (२३) बड़े भाईका निश्चय जान वह लक्ष्मण अपने घर पर गया। तब कृतान्तवदन रथ पर
१. लुम्भवेहिं बहुएहि-प्रत्यः । २. अदिडपट्टीणं-मु.। ३. सीयं-प्रत्य०। ४. . य तिहुयणे अयसो-मु.। ६२
2-9
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org