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४६२ पउमचरियं
[६४.५४ अह सो कयन्तवयणो, धोरो वि य तत्थ कायरो जाओ। परिऊण सन्दणवर, रुवइ तओ उच्चकण्ठेणं ॥५४॥ तं पुच्छइ वइदेही, किं रुवसि तुम इह अकज्जेणं । तेण वि सा पडिभणिया, सामिणि ! वयणं निसामेहि ॥५५॥ दित्तग्गिविससरिच्छं, दुज्जणवयणं पहू निसुणिऊणं । डोहलयनिभेण तुम, चत्ता अववायभीएणं ॥ ५६ ॥ तीए कयन्तवयणो, कहेइ नयराहिवाइयं सर्व । दुक्खस्स य आमूलं, जणपरिवायं जहावत्तं ॥ ५७ ॥ लच्छीहरेण सामिणि!, अणुणिज्जन्तो वि राहवो अहियं । अववायपरिब्भीओ, न मुयइ एयं असग्गाहं ॥५८॥ न य माया नेव पिया, न य भाया नेव लक्खणो सरणं । तुज्झ इह महारणे, सामिणि ! मरणं तु नियमेणं ॥५९॥ सुणिऊण वयणमेयं, वज्जेण व ताडिया सिरे सीया । ओयरिय रहबराओ, सहसा ओमुच्छिया पडिया ॥६० ॥ कह कह बि समासत्था, पुच्छइ सेणावई तओ सीया । साहेहि कत्थ रामो, केदूरे वा वि साएया ॥ ६१ ॥ अह भणइ कयन्तमुहो, अइदूरे कोसला पुरी देवी । अइचण्डसासणं पुण, कत्तो चिय पेच्छसे रामं ।। ६२ ।। तह वि य निब्भरनेहा, जंपइ एयाइ मज्झ वयणाई । गन्तूण भणियचो, पउमो सबायरेण तुमे ।। ६३ ।। जह नय-विणयसमग्गो, गम्भीरो सोमदंसणसहावो । धम्मा-ऽधम्मविहण्मू, सबकलाणं च पारगओ ॥ ६४ ॥ अभवियजणवयणेणं, भीएण दुगुंछणाएँ अइरेणं । सामिय ! तुमे विमुक्का, एत्थ अरण्णे अकयपुण्णा ॥ ६५ ॥ जइ वि य तुमे महायस!, चत्ता हं पुबकम्मदोसेणं । तह वि य नणपरिवाय, मा सामि ! फुडं गणेज्जासु ॥६६॥ रयणं पाणितलाओ, कह वि पमाएण सागरे पडियं । केण उवाएण पुणो, तं लब्भइ मम्गमाणेहिं ? ॥ ६७ ॥ पक्खिविऊण य कवे. अमयफलं दारुणे तमन्धारे । नह पडिवज्जइ दक्खं. पच्छायावाहओ बालो ॥ ६८ ॥ संसारमहादुक्खस्स, माणवा जेण सामि ! मुश्चन्ति । तं दरिसणं महग्धं, मा मुञ्चहसे जिणुद्दिहूँ ।। ६९ ॥
वहाँ वह कृतान्तवदन धीर होने पर भी कातर हो गया। रथको खड़ा करके वह ऊँचे स्वरसे रोने लगा। (५४) उसे चैदेहीने पूछा कि तुम बिना कारण यहाँ क्यों रोते हो ? उसने भी उसे (सीतासे ) कहा कि, हे स्वामिनी ! आप मेरा कहना सुनें। (५५) प्रदीप्त अग्नि और विषतुल्य दुर्जन-वचन सुनकर अपवादके भयसे प्रभुने दोहदके बहाने आपका त्याग किया है। (५६) कृतान्तवदनने जैसा हुआ था वैसा नगरजनोंके अभिवादनसे लेकर सारे दुःखके मूल रूप जनपरिवादको कह सुनाया। (५७) हे स्वामिनी ! लक्ष्मणके द्वारा अनुनय किये जाने पर भी अपवादसे अत्यन्त भयभीत रामने अपना यह असदाग्रह नहीं छोड़ा। (५८) हे स्वामिनी ! इस महारण्यमें आपके न माता, न पिता, न भाई और न लक्ष्मण ही शरणरूप हैं। आपकी यहाँ अवश्य मृत्यु हो जायगी। (५६) यह वचन सुनकर मानो सिर पर वनसे चोट लगाई गई हो ऐसी सीता रथ परसे उतरी और सहसा मूर्छित होकर गिर पड़ी। (६०) किसी तरह होशमें आने पर सीताने सेनापतिसे पूछा कि राम कहाँ है और साकेत कितनी दूर है यह कहो । (६१) इस पर कृतान्तवनने कहा कि, हे देवी! साकेतनगरी बहुत दूर है। अत्यन्त प्रचण्ड शासनवाले रामको आप कैसे देख सकोगी ? (६२) फिर भी स्नेहसे भरी हुई उसने कहा कि लौटकर तुम मेरे ये वचन रामसे संपूर्ण आदरके साथ कहना कि हे स्वामी ! नय और विनयसे युक्त, गम्भीर, सौम्य दर्शन और सौम्य स्वभाववाले. धर्म-अधर्मके ज्ञाता, सब कलाओंके पारगाभी तुमने अभव्यजनोंके कहनेसे बदनामीसे अत्यन्त डरकर मुझ पापीको इस अरण्यमें छोड़ दिया है। (६३-६५) हे महायशः पूर्वकर्मके दोषसे तुमने यद्यपि मुझे छोड़ दिया है, तथापि हे स्वामी! आप जन-परिवादको सत्य मत समझना। (६६) किसी तरह प्रमावश हथेलीमेंसे रत्न समुद्र में गिर जाय, तो खोजने पर भी वह कैसे प्राप्त हो सकता है ? (६७) भयंकर अन्धकारसे युक्त कूमें अमृतफल फेंककर पश्चात्तापसे पीड़ित मूर्ख जिस तरह दुःख प्राप्त करता है उसी तरहसे, नाथ ! जिससे मनुष्य संसारके महादुःखका परित्याग करते हैं उस जिनेन्द्र द्वारा प्रोक्त अतिमूल्यवान् दर्शनका तुम त्याग मत करना। (६८-६९) जिस अहित (कटु)
१. ०लं सीयाए जं जहा० - मु.। २. तुझं इहं अरण्णे, सामिणि ! रणं तु-प्रत्यः। ३. ०यव्वो गंतुं सव्वा०-प्रत्य । ४. अइरेग-प्रत्य०। ५. एत्थारण्णे कह अउण्णा ?-प्रत्य० ।
१२-६५) हे महायशः पूर्व
त्वामा ! आप जन-परिवादको
रत्न समुद्र में गिर जाय
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