________________
१३. ३५]
६३. जणचिंतापव्वं एव परिपुच्छियाणं, ताणं चिय भणइ मयहरो एक्को । सामिय अभएण विणा, अम्हं वाया न निक्खमइ ॥ २० ॥ तो भणइ पउमनाहो, न किंचि भयकारणं हवइ तुझं । उल्लवह सुवीसत्था, मोत्तणं सज्झसुबेयं ॥ २१ ॥ लद्धम्मि तओ अभए, विजओ पत्थावियक्खरं वयणं । जंपइ कयञ्जलिवुडो, सामिय! वयणं सुणसु अम्हं ॥ २२ ॥ सामिय! इमो समत्थो, पुहइजणो पावमोहियमईओ । परदोसग्गहणरओ, सहाववंको य सढसीलो ॥ २३ ॥ जंपइ पुणो पुणो च्चिय, जह सीया रक्खसाण नाहेणं । हरिऊणं परिभुत्ता, इहाणिया तहवि रामेणं ॥ २४ ॥ उज्जाणेसु घरेसु य, तलायवावीसु जणवओ सामी । सीयाअववायकह, मोत्तूण न जंपए अन्नं ॥ २५ ॥ दसरहनिवस्स पुत्तो, रामो तिसमुद्दमेइणीनाहो । लङ्काहिवेण हरियं, कह पुण आणेइ जणयसुर्य ? ॥ २६ ॥ नणं न एत्थ दोसो, परपुरिसपसत्तियाएँ महिलाए । जेण इमो पउमाभो, सीया धारेइ निययघरे ॥ २७ ॥ जारिसकम्भायारो, हवइ नरिन्दो इहं वसुमईए । तारिसनिओगनिरओ, अहियं चिय होइ सबजणो ॥ २८ ॥ एव भणन्तस्स पभू, जणस्स अइदुट्टपावहिययस्स । राव ! करेहि संपइ, अइरा वि य निग्गहें घोरं ॥ २९ ॥ सोऊण वयणमेयं, वजेण व ताडिओ सिरे रामो । लज्जाभरोत्थयमणो परमविसायं गओ सहसा ॥ ३० ॥ चिन्तेऊण पवत्तो, हा! कट्ठ कारणं इमं अन्नं । जायं अइदुबिसह, सीयाअववायसंबन्धं ॥ ३१ ॥ जीए कएण रणे, अणुहूयं विरहदारुणं दुक्खं । सा सीया कुलयन्दं, मह अयसमलेण मइलेइ ॥ ३२ ॥ जीसे कज्जेण मए. विवाइओ रक्खसाहिवो समरे । सा मज्झ अयसमइलं, सीया जसदप्पणं कुणइ ॥ ३३ ॥ जुत्तं चिय भणइ जणो, ना परपुरिसेण अत्तणो गेहे । नीया पुणो वि ये मए, इहाणिया मयणमूढेणं ॥ ३४ ॥
अहवा को जुवईणं, जाणइ चरियं सहावकुडिलाणं । दोसाण आगरो चिय, जाण सरीरे वसइ कामो ॥ ३५ ॥ उद्वेगका परित्याग करके मुझे कहो । (१६) इस प्रकार पूछने पर उनमेंसे एक अगुएने कहा कि, हे स्वामी ! अभयके बिना हमारी वाणी नहीं निकलती। (२०) तब रामने कहा कि तुम्हें भयका कोई कारण नहीं है। विश्वस्त होकर और भय एवं उद्वेगका परित्याग करके कहो । (२१)
अभय प्राप्त होने पर हाथ जोड़े हुए विजयने कथनको बराबर व्यवस्थित करके कहा कि हे स्वामी ! हमारा कहना आप सने । (२२) हे स्वामी ! पृथ्वी परके सब लोग भव बंधनसे मोहित बुद्धिवाले, दूसरोंके दोषग्रहणमें रत, स्वभावसे ही टेढ़े और शठ आचरणवाले होते हैं। (२३) ये बार बार कहते हैं कि राक्षसों के स्वामी रावणने अपहरण करके सीताका उपभोग किया है, किन्तु फिर भी राम उसे यहाँ लाये हैं । (२४) हे स्वामी ! उद्यानोंमें, घरोंमें तथा तालाबों और बावड़ियों पर सीताके अपवादकी कथाको छोड़कर लोग दूसरा कुछ बोलते नहीं हैं । (२५) तीनों ओर समुद्रसे घिरी हुई पृथ्वीके स्वामी दशरथपुत्र राम लंकेश रावण द्वारा अपहृत सीताको पुनः क्यों लाये हैं ? (२६) वस्तुतः परपुरुषमें प्रसक्त महिलाका इसमें दोष नहीं है, क्योंकि ये राम सीताको अपने घरमें रखे हुए हैं। (२७). इस पृथ्वी पर राजा जैसे कर्म और श्राचारवाला होता है वैसे ही कार्य में और भी अधिक निरत सब लोग होते हैं। (२८) हे प्रभो राघव ! ऐसा कहनेवाले अतिदुष्ट और पापीहृदयी लोगोंका आप अब जल्दी ही घोर निग्रह करें । (२६)
ऐसा वचन सुनकर मानो वज्रसे सिर ताडित हुआ हो ऐसे राम लज्जाके भारसे खिन्न हो एकदम अत्यन्त दुःखी हो गए। (३०) वे सोचने लगे कि अफसोस है ! सीताके अपवादके बारेमें यह दूसरा एक अत्यन्त दुःसह कारण उपस्थित हा। (३१) जिसके लिए अरण्यमें दारुण विरह-दुःख भोगा वह सीता मेरे कुलरूपी चन्द्रको अयशरूपी मलसे मलिन करती है। (३२) जिसके लिए मैंने युद्ध में राक्षसराजको मारा वह सीता मेरे यशरूपी दर्पण को अपयश से मलिन करती है। (३३) लोग ठीक ही कहते हैं कि परपुरुपके द्वारा जो अपने घरमें ले जाई गई थी उसीको कामविमोहित मैं यहाँ लाया हैं। (३४) अथवा जिनके शरीरमें दोषोंकी खान जैसा काम बसता है उन स्वभावसे कुटिल युवतियोंका चरित कौन जान
१. ०ऊण य प.-प्रत्य.। २. हु-प्रत्य० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org