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पउमचरियं
[६२.३. किल सामि ! अज्ज सुविणे, दो सरहा तिबकेसरारुणिया । ते मे मुहं पविट्ठा, नवरं पडिया विमाणाओ ॥ ३ ॥ तो भणइ पउमणाहो, सरहाणं दरिसणे तुमं भद्दे ! । होहिन्ति दोन्नि पुत्ता, अइरेणं सुन्दरायारा ॥ ४ ॥ जं पुप्फविमाणाओ, पडिया न य सुन्दरं इमं सुविणं । सबै गहाऽणुकूला, होन्तु सया तुज्झ पसयच्छि! ॥ ५॥ ताव य बसन्तमासो, संपत्तो पायवे पसाहेन्तो । पल्लव-पवाल-किसलय-पुप्फ-फलाइं च जणयन्तो ॥ ६ ॥ अंकोल्लतिक्खणक्खो, मल्लियणयणो असोयदलजीहो । कुरचयकरालदसणो, सहयारसुकेसरारुणिओ ॥ ७ ॥ कुसुमरयपिञ्जरङ्गो, अइमुत्तलयासमूसियकरग्गो । पत्तो. वसन्तसीहो, गयवइयाणं भयं देन्तो ॥ ८ ॥ कोइलमुहलुग्गीय, महुयरगुमुगुमुगुमेन्तझंकारं । कुसुमरएण समत्थं, पिञ्जरयन्तो दिसायकं ॥ ९ ॥ नाणाविहतरुछन्नं, वरकुसुमसमच्चियं फलसमिद्ध। रेहइ महिन्दउदयं, उज्जाणं नन्दणसरिच्छं ॥ १० ॥ एयारिसंमि काले, पढमिल्लुगगब्भसंभवे सीया । जाया मन्दुच्छाहा, तणुयसरीरा य अइरेगं ॥ ११ ॥ तं भणइ पउमनाहो, किं तुज्झ अवट्टियं पिए ! हियए । दई दोहलसमए ?, तं ते संपाड्यामि अहं ॥ १२ ॥ तो सुमरिऊण जंपइ, नणयसुया जिणवरालए बहवे । इच्छामि नाह ! दट्टुं वन्दामि तुह प्पसाएणं ॥ १३ ॥ सोऊण तीऍ वयणं, पउमाभो भणइ तत्थ पडिहारिं। कारेह जिणहराणं, सोहा परमेण विभवेणं ॥ १४ ॥ सबो वि नायरजणो, तत्थ महिन्दोदए वरुज्जाणे । गन्तूण सविभवेणं, जिणालयाणं कुणउ पूर्य ॥ १५॥ सा एव भणिय सन्ती, पडिहारी किंकराण आएसं । देइ विहसन्तवयणा, तेहिं पि पडिच्छिया आणा ॥ १६ ॥ अह तेहि पुरवरीए, धुढे चिय सामियस्स वयणं तं । सोऊण सबलोओ, जिणपूयाउज्जओ जाओ ॥ १७ ॥ एतो जिणभवणाई नणेण संमज्जिओवलित्ताई। कयवन्दणमालाई, वरकमलसमच्चियतलाई॥ १८ ॥
आज मैंने स्वप्नमें देखा कि गहरे केसरी रंगके कारण अरुण शोभावाले दो शरभ मेरे मुख में प्रविष्ट हुए हैं और मैं विमानमें से नीचे गिर पड़ी हूँ। (२-३) इस पर रामने कहा कि हे भद्रे! शरभोंके दर्शनसे तुम्हें सुन्दर आकृतिवाले दो पुत्र शीघ्र ही होंगे। (४) विमान परसे जो तुम गिरी, वह सुन्दर स्वप्न नहीं था। हे प्रसन्नाक्षी ! सभी ग्रह तुम्हें सदा अनुकूल हों। (२)
उस समय वृक्षोंको प्रसन्न करनेवाला तथा पल्लव, किसलय, नये अंकुर, पुष्प एवं फलोंको पैदा करनेवाला वसन्तमास आया। (६) कोठ वृक्ष रूपी तीक्ष्ण नाखूनवाला, मल्लिकारूपी नेत्रवाला, अशोकपत्ररूपी जीभवाला, कुरवकरूपी कराल दाँत वाला, श्रामके केसररूपी अरुणिमासे युक्त, पुप्पोंकी रजरूपी पीले शर:स्वला तथा अतिमुक्तकलता रूपी ऊपर उठे हुए पंजोंवाला-ऐसा वसन्तरूपी सिंह गजपतियोंको भय देता हुआ पाया। (७-८) कोयलके बोलनेसे गीतयुक्त, भौरोंकी गुनगुनाहटसे झंकृत, कुसुमरजसे समस्त दिशायोंको पीली-पीली बनानेवाला, नानाविध वृक्षोंसे छाया हुआ, उत्तम पुष्पोंसे अचित एवं फलसे समृद्ध ऐसा महेन्द्रोदय उद्यान नन्दनवनकी भाँति शोभित हो रहा था। (६-१०)
से समयमें प्रथम गर्भकी उत्पत्तिसे सीता मन्द उत्साहवाली तथा अतिशय क्षीणशरीर हो गई। (११) उसे रामने कहा कि, प्रिये ! तेरे हृदय में क्या है ? दोहदके परिणामस्वरूप जो पदार्थ तुझे चाहिए वह मैं तुझे ला दूं। (१२) तव याद करके सीताने कहा कि, हे नाथ ! आपके अनुग्रह से मैं बहुतसे जिनमन्दिरोंके दर्शन और वन्दन करना चाहती हूँ। (१३) उसका कहना सुन रामने प्रतिहारीसे कहा कि अत्यन्त वैभवके साथ जिनमन्दिरोंकी शोभा कराओ । (१४) सभी नगरजन उस उत्तम महेन्द्रोदय उद्यानमें जाएँ और वैभवके साथ जिनालयोंकी पूजा करें। (.५) इस प्रकार कही गई हँसमुखी प्रतिहारीने नौकरोंको आदेश दिया। उन्होंने भी आज्ञा धारण की। (१३) उन्होंने नगरीमें घोपणा की। राजाका वचन सनकर सब लेग जिनपूजाके लिए उद्यत हुए। (१७) तब लोगोंने जिनभवनोंको बुहारकर लीपा, चन्दनवार वाँधे तथा उत्तम कमलोंसे भूमिको अलंकृत किया । (१८) रत्नमय पूर्णकलश जिनमन्दिरोंके द्वारोंमें स्थापित किये गये तथा उत्तम चित्रकर्मसे
१. विणएणं-म।
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