________________
पउमचरियं
[८६.४१
एव भणिओ पवुत्तो, सेणिय ! मुणिपुङ्गवो सभावन्न । सत्तुग्ध ! मज्झ वयणं, निसुणेहि हियं च पत्थं च ॥ ४१ ॥ इह भारहम्मि वासे, वोलीणे नन्दनरवईकाले । होही पविरलगहणो, निणधम्मो चेव दुसमाए ॥ ४२ ॥ होहिन्ति कुपासण्डा, बहवो उप्पाय-ईइसंबन्धा । गामा मसाणतुल्ला. नयरा पुण पेयलोयसमा ॥ ४३ ॥ चोरा इव रायाणो, होहिन्ति नरा कसायरयबहुला । मिच्छत्तमोहियमई. साहूणं निन्द्णुज्जुत्ता ॥ ४४ ॥ नं चेव अप्पसत्थं, तं सुपसत्थं ति मन्नमाणा ते । निस्संजम-निस्सीला, नरए पडिहिन्ति गुरुकम्मा ॥ ४५ ॥ निब्भच्छिऊण साहू, मूढा दाहिन्ति चेव मूढाणं । बीयं व सीलवटे, न तस्स दाणस्स परिवुड्डी ॥ ४६ ॥ चण्डा कसायबहुला, देसा होहिन्ति कुच्छियायारा । हिंसा-ऽलिय-चोरिक्का, काहिन्ति निरन्तरं मूढा ॥ ४७ ॥ वय-नियम-सील-संजम-रहिएसु अणारिएसु लिङ्गीसु । वेयारिही जणो वि य, विविहकुपासण्डसत्थेसु ॥ ४८ ॥ धण-रयणदबरहिया, लोगा पिइ-भाइ वियलियसिणेहा । होहिन्ति कुपासण्डा. बहवो दुसमाणुभावेणं ॥ ४९ ।। सत्तुग्ध ! एव नाउं, कालं दुसमाणुभावसंजणियं । होहि जिणधम्मनिरओ, अप्पहियं कुणसु सत्तीए ॥ ५० ॥ सायारधम्मनिरओ, वच्छल्लसमुज्जओ नणे होउं । ठावेहि जिणवराणं, घरे घरे चेव पडिमाओ ।। ५१ ॥ सत्तग्य ! इह पुरीए, चउसु वि य दिसासु सत्तरिसियाणं । पडिमाउ ठवेहि लहुं, होही सन्ती तओ तुज्क्तं ॥ ५२ ॥ अजपभूईऍ इहं, जिणपडिमा जस्स नस्थि निययघरे । तं निच्छिएण मारी, मारिहिइ मयं व ज वग्धी ॥ ५३ ।। अङ्गुट्टपमाणा वि हु, जिणपडिमा जस्स होहिइ घरम्मि । तस्स भवणाउ मारी, नासिहिइ लहुं न संदेहो ॥ ५४ ॥ भणिऊण एवमेयं, सेट्ठिसमग्गेण रायपुत्तेणं । अहिवन्दिया मुणी ते, सत्त वि परमेण भावेणं ॥ ५५ ॥ दाऊण धम्मलाहं, ते य मुणी नहयलं समुप्पइया । चारणलद्धाइसया, सीयाभवणे समोइण्णा ॥ ५६ ॥
हे श्रेणिक ! इस प्रकार कहे गये और स्वभावको जाननेवाले उन मुनिपुंगवोंने कहा कि, हे शत्रुघ्न ! मेरा हितकारी और पथ्य वचन सुनो । (४१) इस भरतक्षेत्रमें नन्द राजाका काल व्यतीत होने पर दुःसम ारेमें जिनधर्मको पालनेवाले अत्यन्त विरल हो जाएँगे। (४२) बहुत-से कुधर्म फैलेंगे। उपद्रव, अनावृष्टि और अतिवृष्टि आदि ईतियोंके कारण गाँव श्मशान तुल्य और नगर प्रेतलोक सदृश हो जाएँगे। (४३) राजा चोरोंके जैसे होंगे और लोग कापायिक कर्मोंसे युक्त, मिथ्यात्वसे मोहित मतिवाले तथा साधुओंकी निन्दामें तत्पर रहेंगे । (४४) जो अप्रशस्त है उसको अत्यन्त प्रशस्त माननेवाले वे संयम और शीलहीन तथा कर्मोंसे भारी होकर नरकमें भटकेंगे। (४५) साधुओंका तिरस्कार करके मूढ़ लोग मूखौंको दान देंगे। पत्थर पर पड़े हुए बीजकी भाँति उस दानकी वृद्धि नहीं होगी। (४६) देश उग्र, कपायबहुल और कुत्सित आचारवाले होंगे। मूर्ख लोग निरन्तर हिंसा, झूठ और चोरी करेंगे। (४७) व्रत, नियम, शील एवं संयमसे रहित अनार्य लिंगधारी साधुओंसे तथा अनेक प्रकारके कुधर्म युक्त पाखण्डियोंके शात्रोंसे लोग ठगे जाएँगे । (४८) दुःसम आरेके प्रभावसे बहुत-से लोग धन, रत्न एवं द्रव्यसे रहित, पिता एवं भाईके स्नेहसे हीन तथा मिथ्याधर्मी होंगे। (४६) हे शत्रुघ्न ! दुःसम के प्रभावसे उत्पन्न ऐसे कालको जानकर तुम जिनधर्म में निरत हो और शक्तिके अनुसार आत्महित करो। (५०) गृहस्थ धर्ममें निरत तुम साधर्मिक जनोंके ऊपर वात्सल्यभाव रखनेमें समुद्यत होकर जिनमन्दिरोंकी तथा घर-घर में प्रतिमाओंकी स्थापना करो। (५१) हे शकुन्न ! इस नगरीकी चारों दिशाओंमें सप्तषियोंकी प्रतिमाओंकी जल्दी ही स्थापना करो। तब तुम्हें शान्ति होगी । (५२) आजसे लेकर यहाँ जिसके अपने घरमें जिनप्रतिमा नहीं होगी उसे महामारि अवश्य ही उस तरह मारेगी, जिस तरह व्याघ्री हिरनको मारती है । (५३) अंगूठे जितनी बड़ी जिन प्रतिमा भी जिसके घरमें होगी उसके घरमेंसे महामारि फौरन ही नष्ट होगी, इसमें सन्देह नहीं । (५४) ऐसा कहकर सेठके साथ राजपुत्र शत्रुघ्न द्वारा वे सातों ही मुनि भावपूर्वक अभिवन्दित हुए । (५५)
धर्मलाभ देकर वे चारणलब्धि संपन्न मुनि आकाशमें उड़े और सीताके भवनमें उतरे। (५६) भवनके १. हु-प्रत्य। २. अजप्पभिई च इह-प्रत्य० ।
Jain Education International
www.jainelibrary.org
International
For Private & Personal Use Only