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पउमचरियं
[८६. १०बारसविहेण जुत्ता, तवेण ते मुणिवरा गयणगामी । पोयणविनयपुराइसु, काऊणं पारणं एन्ति ॥ १० ॥ अह अन्नया कयाई, साहू मज्झण्हदेसयालम्मि । उप्पइय नहयलेणं, साएयपुरि गया सबै ॥ ११ ॥ भिक्खट्टे विहरन्ता, घरपरिवाडीऍ साहवो धीरा । ते सावयस्स भवणं, संपत्ता अरहदत्तस्स ॥ १२ ॥ चिन्तेइ अरहदत्तो, वरिसाकाले कहिं इमे समणा । हिण्डन्ति अणायारी, निययं ठाणं पमोत्तणं ॥ १३ ॥ पन्भारकोटगाइसु, जे य ठिया जिणवराण आगारे । इह पुरवरीऍ समणा, ते परियाणामि सबे हैं ॥ १४ ॥ भिक्खं घेत्तण तंओ, पाणं चिय एसणाएँ परिसुद्धं । उज्जाणमज्झयारे, जिणवरभवणम्मि पविसन्ति ॥ १५ ॥ एए पुण पडिकूला, सुत्तत्थविवज्जिया य रसलुद्धा । परिहिण्डन्ति अकाले, न य हं वन्दामि ते समणे ॥ १६ ॥ ते सावएण साहू, न वन्दिया गारवस्स दोसेणं । सुण्हाएँ तस्स नवरं, तत्तो पडिलाभिया सबे ॥ १७ ॥ दाऊण धम्मलाभ, ते निणभवणं कमेण पविसंता । अभिवन्दिया जुईणं, ठाणनिवासीण समणेणं ॥ १८ ॥ काऊण अणायारी, न वन्दिया जुइमुणिस्स सीसेहिं । भणिओ चिय निययगुरू, मूढो जो पणमसे एए ॥१९॥ ते तत्थ जिणाययणे, मुणिसुबयसामियस्स वरपडिमं । अभिवन्दिउं निविट्ठा, जुईण समयं कयाहारा ॥ २० ॥ ते साहिऊण ठाणं, निययट्टाणं नहं समुप्पइया । सत्त वि अणिलसमजवा, खणेण महुरापुरि पत्ता ॥२१॥ चारणसमणे दटू, ठाणनिवासी मुणी सुविम्हइया । निन्दन्ति य अप्पाणं, ते चिय न य वन्दिया अम्हे ॥२२॥ नाव च्चिय एस कहा, वट्टइ तावागओ अरिहदत्तो । जुइणा कहिज्जमाणं, ताणं गुणकित्तणं सुणइ ॥ २३ ॥ महुराहि कयावासा, चारणसमणा महन्तगुणकलिया। सावय ! लद्धिसमिद्धा, अज्ज मए वन्दिया धीरा ॥२४ ।। अह सो ताण पहावं, सुणिऊणं सावओ विसण्णमणो । निन्दइ निययसहावं, पच्छातावेण डज्झन्तो ॥ २५ ॥
बारह प्रकारके तपसे युक्त वे गगनगामी मुनि पारना करके पोतनपुर, विजयपुर आदि नगरोंमें गये। (१०) एक दिन दोपहरके समय सब साधु आकाशमार्गले उड़कर साकेतपुरी गए । (११) भिक्षाके लिये एक घरसे दूसरे घरमें जाते हुए वे धीर साधु अर्हदत्तके मकान पर आये। (१२) अर्हदत्त सोचने लगा कि वर्षाकालमें अपने नियत स्थानको छोड़कर ये अनाचारी श्रमण कहाँ जाते हैं ? (१३) जो इस नगरीमें, पर्वतके ऊपरके भागमें, आश्रयस्थानों आदिमें तथा जिनवरोंके मन्दिरों में साधु रहते हैं उन सबको में पहचानता हूँ। (१४) भिक्षा तथा पान जो निर्दोष हो वह लेकर वे उद्यानके बीच आये हुए जिनमन्दिर में प्रवेश करते हैं। (१५) उनसे विरुद्ध आचरणवाले, सूत्र और उसके अर्थसे रहित तथा रसलुब्ध ये तो असमयमें घूमते हैं। इन श्रमणोंको मैं वन्दन नहीं करूँगा । (१६) ऐसा सोचकर उस श्रावकने अभिमानके दोप से उन साधुओंको वन्दन नहीं किया। तब केवल उसकी पुत्रवधूने उन सबको दान दिया। (१७)
धर्मलाभ देकर क्रमशः जिनमन्दिर में प्रवेश करते हुए उनको उस स्थानमें रहनेवाले द्युति नामके श्रमणने वन्दन किया। (१८) अनाचारी मानकर द्युति मुनिके शिष्योंने इन्हें प्रणाम नहीं किया और अपने गुरुसे कहा कि जो इन्हें प्रणाम करता है वह मूर्ख है। (१६) आहार करके वे उस जिनमन्दिर में द्युतिमुनिके साथ मुनिसुव्रतस्वामीकी सुन्दर प्रतिमाको पन्दन करनेके लिए बैठे। (२०) अपना निवास स्थान कहकर पवनके समान वेगवाले व सातों ही अपने स्थानकी ओर जानेके लिए आकाशमें उड़े और क्षणभरमें मथुरानगरीमें पहुँच गये। (२१) चारण श्रमणोंको देखकर उस स्थानके रहनेवाले मुनि अत्यन्त विस्मित हुए। वे अपनी निन्दा करने लगे कि हमने उनको वन्दन नहीं किया। (२२) जब यह कथा हो रही थी तव अहदत्त वहाँ आया
और द्युतिमुनि द्वारा कहा जाता उनका गुणकीर्तन सुना। (२३) हे श्रावक ! मथुरामें ठहरे हुए महान् गुणोंसे युक्त तथा लब्धियोंसे समृद्ध ऐसे धीरता धारण करनेवाले श्रमणोंको मैंने आज बन्दन किया है। (२४) तब उनके प्रभावको सुनकर मनमें विषण्ण वह श्रावक पश्चात्तापसे जलता हुआ अपने स्वभावकी निन्दा करने लगा कि मुझे धिक्कार है। मूर्ख मैं सम्यग्दर्शन से रहित
१. वीरा-प्रत्य.। २-३. अरिह०--प्रत्यः। ४. या जेय जिणवरागारे-प्रत्यः । ५. तओ अनं पि य ए०-मु०। ६. ०ण संपत्ता-मु०। ७. वीरा-प्रत्य० ।
(१८) अनाचारी मानकर
मश: जिनमन्दिर में प्रवेश करत पल उसकी पुत्रवधूने उन सबको दान
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