________________
४७४
पउमचरियं
॥
२९ ॥
३० ॥
॥
३१ ॥
३२ ॥
३३ ॥
दिन्ना य मित्तदत्ता, अयलस्स निवेण अत्तणो धूया । लोगम्मि अवज्झाओ, भण्णइ रज्जं च पत्तो सो ॥ अङ्गाइया य देसा, निणिऊणं सयलसाहणसभग्गो । पियरस्स विग्गहेणं, अयलो महुरं समणुषत्तो ॥ ते चन्दभद्दपुत्ता, समयं चिय पत्थिवेहि नियएहिं । अत्थेण सुविउलेणं, भिन्ना अयलेण ते सबे नाऊण चन्दभद्दो, भिन्ने सबे वि अत्तणो भिच्चे । पेसेइ सन्धिकज्जे, साला तस्सेवं वसु-दत्ता ॥ ते पेच्छिऊण अयलं, पच्चहियाणंति पुवचिन्धेहिं । अइलज्जिया नियत्ता, कहेन्ति ते चन्दभद्दस्स || पुत्तेहि समं भिच्चा, कया य औदिसेवया स । मायावितेहि समं, अयल्स्स समागमो जाओ पुत्तस्स चन्दभद्दो, परितुट्टो कुणइ संगमाणन्दं । नाओ रज्जाहिवई, अयलो सुकयाणुभावेणं ॥ अयलेण अन्नया सो, दिट्ठो नडरङ्गमज्झयारत्थो । परियाणिओ य अको, पडिहारनरेसु हम्मन्तो ॥ दिन्ना य जम्मभूमी, सावत्थो तस्स अयलनरवइणा । दद्दं च सुप्पभूयं, नाणालंकारमादीयं ॥ दोन्नि वि ते उज्जाणं, कीलणहेउं गया सपरिवारा । दट्ठण समुदमुणिं, तस्स सयासम्मि निक्खन्ता ॥ दंसणनाणचरित्ते, अप्पाणं भाविऊण कालगया । दोन्नि वि सुरबहुकलिए, देवा कमलुत्तरे नाया || भोगे भोत्तूण चुओ, अयलसुरो केगईऍ गब्र्भमि । जाओ दसरहपुत्तो, सत्तुग्घो पुहँइविक्खाओ ॥ सेणिय ! सोणेयभवा, आसि च्चिय पुरवरीऍ महुराए । सत्तग्घो कुणइ रई, मोत्तूर्णं सेसनयरीओ ॥ गेहस्स तरुवरस्स य, छायाए जस्स एक्कमवि दियहं । परिवसइ तत्थ जायइ, जीवस्स रई सहावेणं ॥ किं पुण जत्थ बहुभवे, जीवेणं संगई कया ठाणे । नायइ तत्थ अईवा, सेणिय ! पीई ठिई एसा ॥ ४० ॥ अह सो अङ्कसुरवरो, तत्तो आउक्खए चुयसमाणो । नाओ कयन्तवयणो, "सेणाहिवई हलहरस्स ॥ ४१ ॥
३४ ॥
३५ ॥
३६ ||
३७ ॥
[ ८८. २६
१. ०क्षा सव्वे वि भयलेणं — प्रत्य० । ५. सेणाणीओ हल ० – प्रत्य• ।
अचलको दी । उसने राज्य पाया और वह लोकमें उपाध्याय कहा जाने लगा । (२६) अंग आदि देशों को जीतकर सम्पूर्ण सेनाके साथ चल पितासे युद्ध करनेके लिए मथुरा जा पहुँचा । (२७) अपने राजाओंके साथ चन्द्रभद्रके उन सब पुत्रोंको चलने विपुल शरू से हरा दिया । (२= ) अपने सब भृत्य हार गये हैं ऐसा जानकर चन्द्रभद्रने सन्धिके लिए उसके पास सालोंको नजराना देकर भेजा । (२९) अचलको देखकर पहले के चिह्नोंसे उन्होंने उसे पहचान लिया । अत्यन्त लज्जित वे लौटे और चन्द्रभद्रसे कहा । (३०) उसने चन्द्रभद्रके पुत्रों के साथ सबको आज्ञा उठानेवाले सेवक बनाया । माता-पिताके साथ अचलका समागम हुआ । (३१) आनन्दमें आये हुए चन्द्रभद्रने मिलनका महोत्सव मनाया। पुरयके फलस्वरूप अचल राज्याधिपति हुआ । (३२)
Jain Education International
२६ ॥
२७ ॥
२८ ॥
एक दिन अचलने नाटककी रंगभूमिमें स्थित और द्वाररक्षक द्वारा मारे जाते अंकको देखा और उसे पहचाना । (३३) अचल राजाने उसे उसकी जन्मभूमि श्रावस्ती, वहुत-सा धन और नाना प्रकारके अलंकार आदि दिये । (३४) बादमें दोनों ही परिवारके साथ उद्यानमें क्रीड़ाके लिए गये । समुद्र - मुनिको देखकर उसके पास उन्होंने दीक्षा ली । (३५) दर्शन, ज्ञान और चारित्रसे अपने आपको भावित करके मरने पर दोनों ही कमलोत्तर में देववधुओंसे युक्त देव हुए । (३६) भोग भोगकर च्युत होने पर अचल देव कैकेईके गर्भ से दशरथका विश्वविश्रुत पुत्र शत्रुघ्न हुआ । (३७) हे श्रेणिक ! शत्रुघ्न अनेक भवों तक मथुरा नगरी में था, अतः उसने दूसरी नगरियों को छोड़कर इससे अनुराग किया । (३८) जिस घर या वृक्षकी छायामें एक दिन भी कोई प्राणी रहता है तो उसके साथ उसकी प्रीति स्वभावसे हो जाती है । (३६) तो फिर अनेक भवों तक जिस स्थान में जीवने संगति की हो, तो उसका कहना ही क्या ? हे श्रेणिक ! वहाँ अत्यधिक प्रीति होती है । यही नियम है । (४०) वह अंक देव आयुके क्षय होने पर वहाँसे च्युत हो हलधर रामका सेनापति कृतान्तवदन हुआ है । (४१) हे श्रेणिक ! विनय२. ० व सद्दता - प्रत्य० । ३. अद्दिट्ठ० - प्रत्य० । ५. देसविक्खाओ -- प्रत्य• ।
For Private & Personal Use Only
३८ ॥
३९ ॥
www.jainelibrary.org