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पउमचरियं
aणी विपरितुट्टा, पुत्तं दट्ठण निणवरिन्दाणं । कञ्चणकलसेहि तओ, ण्हवणेण समं कुणइ पूयं ॥ १९ ॥ एव नरा सुकएण भयाई, नित्थरयन्ति जला - ऽणिलमाई ।
ते इमं विमलं निणधम्मं, गेण्हह संनमसुट्टियभावा ॥ २० ॥
॥ इइ पउमचरिए महुरा उवसग्गविहाणं नाम सत्तासीयं पव्वं समत्तं ॥
८८. सत्तग्घ कयं तमुहभवाणुकित्तणपव्वं
१ ॥
२ ॥
३ ॥
४ ॥
अह मगहपुराहिवई, पुच्छइ गणनायगं कयपणामो । कज्जेण केण महुरा, विमग्गिया केगइसुएणं ॥ सुरपुरसमाउ इहवं, बहुयाओ अस्थि रायहाणीओ | सत्तुग्धस्स न ताओ, इट्ठाओ नह पुरी महुरा ॥ तो भणइ मुणिवरिन्दो, सेणिय ! सत्तुग्घरामपुत्तस्स । बहुया भवा अतीया, महुराए तेण सा इट्टा ॥ अह संसारसमुद्दे, जीवो कम्माणिलाहओ भैरहे । महुरापुरीऍ नाओ, नामेणं नउणदेवो सो ॥ धम्मरहिओ मओ सो, कोलो गड्डाऍ वायसो जाओ । अइयासुओ य भमणे, दडो महिसो समुत्पन्नो || ५ || जलवाहो गवलो पुण, छबारा महिसओ समुप्पन्नो । कम्मस्स उवसमेणं, नाओ दारिदिओ मणुओ ॥ ६ ॥ नामेण कुलिसधारो, मुणिवरसेवापरायणो विप्पो । रुवाईसयजुत्तो, विवज्जिओ बालकम्मेहिं ॥ ७ ॥ तस्स पुरस्साहिवई, असकिओ नाम दूरदेसं सो । संपत्थिओ कयाई, तस्स उ ललिया महादेवी ॥ ८ ॥ वायायणट्टिया सा, विप्पं दट्टण कामसरपहया । सद्दाविय चेडीए, चिट्ठइ एक्कासणनिविट्टा ॥ ९ ॥ किया । (१६) इस तरह सुकृतसे मनुष्य पानी, आग आदिके भयोंको पार कर जाता है । अतः संयमसे सुस्थित भाववाले होकर तुम इस विमल जिनधर्मको प्रणह करो। (२०)
॥ पद्मचरित में मथुरा में उपसर्गका विधान नामक सत्तासीयाँ पर्व समाप्त हुआ ||
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८८. शत्रुघ्न और कृतान्तवदन के पूर्वभव
मगधाधिपति श्रेणिक प्रणाम करके गणनायक गौतमसे पूछा कि कैकेई पुत्र शत्रुघ्न ने किसलिए मथुरानगरी माँगी थी ? (१) सुरपुरके समान बहुत-सी राजधानियाँ यहाँ पर हैं । शत्रुघ्न को जैसी मथुरा पसन्द आई वैसी वे क्यों पसन्द न आई ? (२) तब मुनिवरेन्द्रने कहा कि :
हे श्रेणिक ! राजकुमारके बहुतसे प्रतीत जन्म मथुरा में हुए थे । इससे वह उसे प्रिय थी । (३) संसार - सागर में कर्मरूपी वासे आहत एक जीव भरतक्षेत्रमें आई हुई मथुरापुरी में यमुनदेवके नामसे पैदा हुआ । (४) धर्मरहित वह मर करके गड्ढों में अशुचि पदार्थ खानेवाला सूअर और कौआ हुआ। बकरे के रूपमें भ्रमण करता हुआ वह जल गया और भैंसेके रूपमें उत्पन्न हुआ । (५) तब जलघोड़ा और जंगली भैंसा हुआ । पुनः छः बार भैंसेके रूपमें हुआ । तब कर्मके उपशमसे दरिद्र मनुष्य हुआ । (६) मुनिवरों की सेवामें तत्पर वह कुलिशधर नामका विप्र उत्तम रूपसे युक्त और मूर्खोकी चेष्टाओंसे रहित था । (७) उस नगरका अशंकित नामका स्वामी था । वह कभी दूर देशमें गया । उसकी महादेवी ललिता थी । (८) वातायनमें स्थित उसने ब्राह्मरणको देखकर कामबाणसे आहत हो नौकरानी द्वारा उसे बुलाया और उसके साथ एक ही आसनपर बैठकर कामचेष्टा करने लगी (९) एक दिन अचानक वह राजा अपने महल पर आया और रानीके साथ एक ही आसन पर
१. सुपुरिससमागमाओ, व० - प्रत्य० । २. बहवो भ० - प्रत्य० । ३. भमइ । म० प्रत्य० । ४. भवणे - प्रत्य० ।
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