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पउमचरियं
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ताव चिय हिण्डन्तो, तं नयर नारओ समणुपत्तो । दिन्नासणोवविट्ठो, रयणरह भणइ मुणियत्थो ॥ ४ ॥ दसरहनिवस्स पुत्तो, भाया पउमस्स लक्खणो वीरो। किं न सुओ ते नरवइ ?, तस्स इमा दिज्जए कन्ना ॥ ५॥ तं एव जपमाणं, सोऊणं पवणवेगमाईया । रुट्टा रयणरहसुया, सयणवहं सुमरिउं बहवे ॥ ६ ॥ अह तेहि निययभिच्चा, आणत्ता किंकरा हणह एयं । तं सुणिय भउबिग्गो, उप्पईओ नारओ रुट्ठो ॥ ७ ॥ संपत्तो च्चिय सहसा, एयं सो लक्खणस्स निस्सेसं । वत्तं कहेइ एत्तो, मगोरमाई सुरमुणी सो ॥ ८ ॥ अह सो चित्तालिहियं कन्नं दावेइ लच्छिनिलयस्स । जयसुन्दरीण सोह. हाऊण व होज निम्मविया ॥ ९ ॥ तं पेच्छिऊण विद्धो, वम्महबाणेहि लक्खणो सहसा । चिन्तेइ तग्गयमणो, हियएण बहुप्पयाराइं ॥१०॥ नइ तं महिलारयणं अयं न लहामि तो इमं रजं । विफलं चिय निस्सेसं, जीयं पि य सुन्नयं चेव ॥ ११ ॥ रयणरहनन्दणाणं, विचेट्टिये नारएण परिकहिए । रुट्टो य लच्छिनिलओ, सद्दाविय पत्थिवे चलिओ ॥ १२ ॥ विज्जाहरेहि समय, गयवर-रह-तुरय-जोहपरिकिण्णा । उप्पइया गयणयलं, हलहर-नारायणा सिग्धं ॥ १३ ॥ संपत्ता रयणपुरं, कमेण असि-कणय-तोमरविहत्था । दट्टण आगया ते, रयणरहो खेयरो रुट्ठो ॥ १४ ॥ भडचडगरेण सहिओ, विणिग्गओ परबलं अइसयन्तो। जुज्झइ रणपरिहत्थो, जोहसहस्साइ घाएन्तो ॥ १५ ॥ रयणरहस्स भडेहिं, निद्दयपहराहयं पवगसेन्नं । रुद्धं संगाममुहे, सायरसलिलं व तुङ्गेहिं ॥ १६ ॥ दण निययसेन्नं रुट्टो लच्छीहरो रहारूढो । अह जुज्झिउं पवत्तो, घाएन्तो रिउभडे बहवे ॥ १७ ॥ पउमो किकिन्धबई, विराहिओ अङ्गओ य आणत्तो । जुज्झइ सिरिसेलो वि य, समयं चिय वेरियभडेहिं ॥ १८ ॥ वाणरभडेसु भग्गं, तिवपहाराहयं रिउबलं तं । विवडन्तजोह-तुरयं, नायं च · पलायणुज्जत्तं ॥ १९ ॥
परिभ्रमण करता हुआ नारद उस नगर में आया। दिये गये आसन पर बैठे हुए उसने बात जानकर रत्नरथसे कहा कि, हे राजन् ! दशरथके पुत्र और रामके भाई लक्ष्मणके बारेमें क्या तुमने नहीं सुना ? उसे यह कन्या दो। (४-५) इस प्रकार कहते हुए उसे सुनकर रत्नरथके पवनवेग आदि बहुतसे पुत्र स्वजनोंके वधको याद करके रुष्ट हुए। (६) उन्होंने अपने सेवक नौकरोंको आज्ञा की कि इसे मारो। यह सुनकर क्रुद्ध नारद भयसे उद्विग्न ऊपर उड़ा । (७) सहसा आकर उस देवमुनि नारदने यह सारा मनोरमा आदिका वृत्तान्त लक्ष्मणसे कह सुनाया। (८) फिर उसने चित्रपट पर आलिखित कन्या लक्ष्मणको दिखलाई। मानो वह विश्वसुन्दरियोंकी शोभाको लेकर बनाई गई थी। () उसे देखकर सहसा मदनबाणोंसे विद्ध और उसी में लीन लक्ष्मण हृदयमें अनेक प्रकारका विचार करने लगा। (१०) यदि उस महिलारत्नको मैं नहीं पाऊँगा तो यह सारा राज्य विफल है और जीवन भी शून्य है। (११) नारद द्वारा रत्नरथके पुत्रोंका आचरण कहे जाने पर रुष्ट लक्ष्मणने राजाओंको बुलाया और आक्रमणके लिए चल पड़ा। (१२)
हाथी, रथ, घोड़े और योद्धाओंसे घिरे हुए हलधर (राम) और नारायण (लक्ष्मण) विद्याधरोंके साथ शीघ्र ही आकाशमें उड़े। (१३) तलवार, कनक और तोमरसे युक्त वे अनुक्रमसे रत्नपुरमें श्रा पहुंचे। उन्हें आया देख रत्नरथ खेचर रुट हुआ । (१४) सुभट-समूहके साथ बह निकल पड़ा और युद्ध में दक्ष वह हजारों योद्धाओंको मारता हुआ शत्रु सैन्यको मात करके लड़ने लगा । (१५) रत्नरथके सुभटोंने युद्धभूमिमें निर्दय प्रहारोंसे पाहत शत्रुसैन्यको, पर्वतों द्वारा रोके जानेवाले सागरके पानीकी भाँति, रोका। (१६) अपने सैन्यको नष्ट होते देख रुष्ट लक्ष्मण रथ पर आरूढ़ हुआ और बहुत-से शत्रुसुभटोंको मारता हुआ युद्ध करने लगा। (१७) राम. सुग्रीव, विराधित, अंगद, आनत
और हनुमान भी शत्रुके सुभटोंके साथ लड़ने लगे। (१८) वानरसुभटों द्वारा तीव्र प्रहारोंसे आहत वह शत्रुसैन्य भन हो गया। योद्धा और घोड़े गिरने लगे। इससे वह पलायनके लिए उद्यत हुआ। (१९) रत्नरथके साथ सैन्यको भग्न देख
१. धीरो-प्रत्यः। २. .इ णारओ पट्ठो-प्रत्यः। ३. किक्किधिवई प्रत्य० ।
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