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पउमचरियं
[८६. ६३इणमो अरहन्ताणं, सिद्धाण नमो सिवं उवगयाणं । आयरिय-उवज्झाणं, नमो सया सबसाहूर्ण ॥ ६३ ॥ अरहन्ते सिद्धे वि य, साहू तह केवलीयधम्मो य । एए हवन्तु निययं, चत्तारि वि मङ्गलं मज्झं ॥ ६४ ॥ जावइया अरहन्ता, माणुसखित्तम्मि होन्ति नयनाहा । तिविहेण पणमिऊणं, ताणं सरणं पवन्नो हं ॥ ६५ ।। हिंसा-ऽलिय-चोरिक्का, मेहुण्णपरिग्गहं तहा देहं । पच्चक्खामि य सवं, तिविहेणाहारपाणं च ॥ ६६ ॥ परमत्थे ण तणमओ, संथारो ने वि य फासुया भूमी । हिययं जस्स विसुद्ध, तस्साया हवइ संथारो ॥ ६७ ॥ एक्को जायइ जीवो, एको उप्पज्जए भमइ एक्को । सो चेव मरइ एक्को, एको चिय पावए सिद्धिं ॥ ६८ ॥ नाणम्मि दंसणम्मि य, तह य चरित्तम्मि सासओ अप्पा । अवसेसा दुब्भावा, वोसिरिया ते मए सबे ॥ ६९ ॥ एवं बावज्जीवं, सङ्गं वोसिरिय गयवरत्थो सो । पहरणजज्जरियतणू, आलुच्चइ अत्तणो केसे ॥ ७० ॥ जे तत्थ किन्नरादी, समागया पेच्छया रणं देवा । ते मुञ्चन्ति सहरिसं, तस्सुवरि कुसुमवरवासं ॥ ७१ ॥ धम्मज्झाणोवगओ, कालं काऊण तइयकप्पम्मि । जाओ सुरो महप्पा, दिवङ्गयकुण्डलाभरणो ।। ७२ ।।
एवं नरो जो वि हु बुद्धिमन्तो, करेइ धम्म मरणावसाणे । वरच्छरासंगयलालियङ्गो, सो होइ देवो विमलाणुभावो ॥ ७३ ॥ ॥ इइ पउमचरिए महुसुन्दरवहाभिहाणं नाम छासीइमं पव्वं समत्तं ॥
८७. महुराउवसग्गविहाणपवं केगइसुएण सेणिय, पुण्णपभावेण सूलरयणं तं । अइखेयसमावन्नं, लज्जियविलियं हयपभावं ॥ १ ॥
तं सामियस्स पासं, गन्तूणं चमरनामधेयस्स । साहेइ सूलरयणं, महुनिवमरणं जहावत्तं ॥ २ ॥ हो । (६३) अरिहन्त, सिद्ध, साधु और केवलीका धर्म-ये चारों मेरे लिए अवश्य मंगल रूप हों। (६४) मनुष्य क्षेत्रमें जितने भी जगतके नाथ अरिहन्त हैं उन्हें मन-वचन-काया तीनों प्रकारसे प्रणाम करके उनकी शरण मैंने ली है । (६५) हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह तथा शरीर और आहार-पान सबका में प्रत्याख्यान करता हूँ। (६६) वस्तुतः संथारा न तो तृणमय होता है और न निर्जीव भूमिका ही होता है जिसका हृदय विशुद्ध है उसकी आत्मा ही संथारा रूप होती है। (६७) एक जीव ही जन्म लेता है, एक वही उत्पन्न होता है, एक वही परिभ्रमण करता है, वही अकेला मरता है और वही अकेला सिद्धि पाता है। (६८) ज्ञानमें, दर्शनमें तथा चारित्रमें आत्मा शाश्वत है। बाकीके जो दुर्भाव हैं उन सबका मैंने त्याग किया है। (६६)
इस तरह यावज्जीवनके लिए संगका त्याग करके हाथी पर स्थित और शस्त्रोंसे जर्जरित शरीरवाले उसने अपने केशोंका लोंच किया। (७०) वहाँ युद्ध देखनेके लिए जो किन्नर आदि देव आये थे उन्होंने हर्पपूर्वक उसके ऊपर उत्तम पुष्पोंकी वृष्टि की । (७१) धर्मध्यानमें लीन वह महात्मा मर करके तीसरे देवलोक सनत्कुमारमें दिव्य बाजूबन्द और कुण्डलोंसे विभूषित देव के रूपमें उत्पन्न हुआ। (७२) इस तरह जो भी बुद्धिमान मनुष्य मृत्युके समय धर्मका आचरण करता है वह सुन्दर अप्सराओंके संसर्गसे स्नेहपूर्वक पाले गये शरीरवाला और विमल प्रभावशाली देव होता है। (७३) ॥ पद्मचरितमें मधुसुन्दरके वधका अभिधान नामक छिआसीवाँ पर्व समाप्त हुआ।
८७. मथुरामें उपसर्ग हेणिक ! कैकई पुत्र शत्रुघ्नके पुण्यके प्रभावसे वह शूलरत्न अत्यन्त खेदयुक्त, लज्जित और प्रभावहीन हो गया। (१) उस शूलरत्नने चमर नामके स्वामीके पास जाकर जैसा हुआ था वैसा मधुराजाके मरणके बारेमें कहा । (२)
१. नमो णमो सव.--प्रत्यः। २. अरहन्तो सिद्धो-मुः। ३. हवन्ति-मु०। ४. ण य सुद्दावहा भूमी-प्रत्य० । ५. भागी-प्रत्य०। ६. पयावं--प्रत्य० ।
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