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८६. ६२ ]
८६. महुसुंदरवहपव्वं
लवणस्स कयन्तस्स य, दोण्हू वि जुज्झं रणे समावडियं । असि कणय चक्क तोमर-विच्छड्डिज्जन्तघाओहं ॥ ४७॥ काऊ अन्नमन्नं, विरहं रणदप्पिया गयारूढा । पुणरवि य समभिडिया, जुज्झन्ति समच्छरुच्छाहा ॥ ४८ ॥ आयणपूरिएहि, सरेहि लवणेण विउलवच्छयले । पहओ कयन्तवयणो ददं पि भेत्तृण सन्नाहं ॥ ४९ ॥ काऊ चिरं जुज्झं, कयन्तवयणेण तत्थ सत्तीए । पहओ लवणकुमारो, पडिओ देवो व महिवट्टे ॥ ५० ॥ सुयं पडियं, महू महासोग कोहपज्जलिओ । सहसा समुट्टिओ सो, अरिंगहणे हुयवहो चेव ॥ दहूण य एज्जन्तं महुरापुरिसामियं तु सत्तुम्धो । आवडइ तस्स समरे, रणरसतण्हालुओ सिग्धं ॥ बाणेण तत्थ महुणा, केऊ सत्तग्घसन्ति छिन्नो । तेण वि य तस्स तुरया, रहेण समयं चिय विलुत्ता तत्तो महू नरिन्दो, आरूढो गयवरं गिरिसरिच्छं । छाएऊण पवत्तो, सत्तुग्धं सरसहस्सेहिं ॥ सत्तुम्घेण वि सहसा, तं संरनिवहं निवारिउं देहे । भिन्नो सो महुराया, गाढं चिय निययबाणेहिं ॥
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आधुम्मियनयणजुओ, मणेण चिन्तेइ सूलरहिओ हं । पुण्णावसाणसमए, जाओ मरणस्स आसने ॥ सुयसोगसल्लियङ्गो, तं चिय दट्टण दुज्जयं सत्तु । मरणं च समासन्नं, मुणिवरवयणं सरइ ताहे पडिबुद्धो भइ तओ, असासए इह समत्थसंसारे । इन्दियवसाणुगेणं, धम्मो न कओ विमूढेणं ॥ मरणं नाऊण धुवं, कुसुमसमं नोबणं चला रिद्धी । अवसेण मए तइया, न कओ धम्मो पमाएणं ॥ पज्जलियम्मि य भवणे, कूवतलायस्स खणणमारम्भो । अहिणा दट्टस्स नए, को कालो मन्तं जवगस्स ! ॥ ६० ॥ जाव न मुञ्चामि लहुं, पाणेहिं एत्थ नीयसंदेहे । ताव इमं निणवयणं, सरामि सोमं मणं काउं ॥ ६१ ॥ तम्हा पुरिसेण नए, अप्पहियं निययमेव कायचं । मरणंमि समावडिए, संपइ सुमरामि अरहन्तं ॥ ६२ ॥
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शस्त्रसमूह
जिसमें फेंके जा रहे हैं ऐसा युद्ध होने लगा । (४७) एक-दूसरे को रथरहित करके युद्धके लिए गर्वित हाथी पर सवार हो भिड़ गये और मत्सर एवं उत्साहके साथ लड़ने लगे । (४८) कान तक खेंचे गये बाणोंसे लवणने कृतान्तवदनकी विशाल छाती पर मज़बूत कवचको भेदकर प्रहार किया । (४६) चिरकाल तक युद्ध करके कृतान्तवदन द्वारा शक्तिसे आहत लवणकुमार देवकी भाँति ज़मीन पर गिर पड़ा। (५०) पुत्रको गिरा देख शोक और क्रोध से अत्यन्त प्रज्वलित अग्नि जैसा मधु शत्रुको पकड़नेके लिए सहसा खड़ा हुआ । (५१)
मथुरापुरीके स्वामीको आता देख युद्धरसका प्यासा शत्रुघ्न समरभूमिमें उसके सम्मुख शीघ्र ही आया । (५२) उस लड़ाई में मधुने बाणसे शत्रुघ्नकी ध्वजा काट डाली । उसने भी रथके साथ उसके घोड़े नष्ट कर दिये । (५३) तब मधु राजा पर्वत जैसे हाथी पर आरूढ़ हुआ और हजारों बाणोंसे शत्रुघ्नको छाने लगा । (५४) शत्रुघ्नने सहसा उस शरसमूहका निवारण करके अपने बाणोंसे उस मधुराजाके शरीरको विदारित किया । (५५) जिसकी दोनों आँखें घूम रही हैं ऐसा वह • मनमें सोचने लगा कि शूलसे रहित मैं पुण्यके अवसानके समय मरणासन्न हुआ हूँ । (५६) तब पुत्रके शोकसे पीड़ित अंगवाले उसने शत्रुको दुर्जय और मृत्युको समीप देखकर मुनिवरके वचनको याद किया । (५७) होशमें आने पर वह कहने • लगा कि इस सारे अशाश्वत संसारमें इन्द्रियों के वशवर्ती मूर्ख मैंने धर्म नहीं किया । (५८) मरणको यौवनको पुष्पके समान और ऋद्धिको चंचल जानकर पराधीन मैंने उस समय प्रमादवश धर्म नहीं किया । (५६) मकान के जलने पर कूएँतालाबको खोदनेका आरम्भ कैसा ? सर्पके द्वारा काटे जाने पर इस संसारमें मंत्रके जपनका कौनसा समय रहता है ? (६०) जीवनका सन्देह होनेसे यहाँ पर मैं जबतक प्राणोंका त्याग नहीं करता तबतक मनको सोम्य बनाकर जिनेश्वरके इस वचनको याद कर लूँ । (६१)
'ध्रुव,
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अतएव मनुष्यको संसारमें आत्मकल्याण अवश्य ही करना चाहिए। मरण उपस्थित होने पर अब मैं अहिन्तको याद करता हूँ । (६२) इन अरिहन्तोंको और मोक्षमें गये सिद्धों को नमस्कार हो। आचार्यों, उपाध्यायों और सब साधुओं को नमस्कार १. ० गकोवप० प्रत्य० । २. सरपियरं प्रत्य• । ३. समावण्णे - प्रत्य० । ४. • जवणम्मि मु० ।
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