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८६. महुसुंदरवहपव्वं देइ तओ आसीसं, जणणी जय पुत्त ! रणमुहे सत्तु । रज्जं च महाभोग, भुञ्जसु हियइच्छियं सुइरं ॥ १५ ॥ संगामे लद्धजसं, पुत्तय ! एत्थागयं तुमं दट्टुं । कणयकमलेहि पूर्य, जिणाण अयं करीहामि ॥ १६ ॥ तेलोकमङ्गला विह. सरअसरनमंसिया भयविमुक्का । ते देन्तु मङ्गलं तुह. सत्तग्य ! जिणा जियभवोहा ॥ १७ ॥ संसारदीहकरणो, महारिवू जेहि निजिओ मोहो । ते तिहुयणेक्कभाणू, अरहन्ता मङ्गलं देन्तु ॥ १८ ॥ अट्टविहेण विमुक्का, पुत्तय ! कम्मेण तिहुयणम्गम्मि । चिट्ठन्ति सिद्धकज्जा, ते सिद्धा मङ्गलं देन्तु ॥ १९ ॥ मन्दर-रवि-ससि-उयही-वसुहा-ऽणिल-धरणि-कमल-गयणसमा । निययं आयारधरा, आयरिया मङ्गलं देन्तु॥ २० ॥ ससमय-परसमयविऊ, अणेगसत्थत्थधारणसमत्था । ते तुज्झ उवज्झाया, पुत्त ! सया मङ्गलं देन्तु ।। २१ ॥ बारसविहेण जुत्ता, तवेण साहेन्ति जे उ निवाणं । ते साहु तुज्झ वच्छय !, साहन्तु दुसाहयं कजं ॥ २२ ॥ एवं दिन्नासीसो, नणणिं नमिऊण गयवरारूढो । निप्फिडइ पुरवरीए, सत्तुग्यो सयलबलसहिओ ॥ २३ ॥ जंगडिजन्ततरङ्गम-संघट्टटेन्तगयघडाडोवं । पाइक्क रहसणाह, महुराहुत्तं बलं चलियं ॥ २४ ॥ लच्छीहरेण धणुवं, वज्जावत्तं सरा य अग्गिमुहा । सिग्धं समप्पियाई, अन्नाइ वि तस्स सत्थाई ॥ २५ ॥ रामो कयन्तवयणं, तस्स उ सेणावई समप्पेउं । लच्छीहरेण समयं, संसइयमणो नियत्तेइ ॥ २६ ॥ सत्तग्यो वि महप्पा, कमेण संपत्थिओ बलसमग्गो । महुरापुरीऍ दूरे, नइम्मि आवासिओ सिग्धं ॥ २७ ॥ ववगयपरिस्समा ते, मन्तं काऊण मन्तिणो सके । कइगइसुयं पमाई, भणन्ति निसुणेहि वयणऽम्हं ॥ २८ ॥ जेण पुरा अइविरिओ, गन्धारो निजिओ रणमुहंमि । सो कह महू महप्पा, जिप्पिहिइ तुमे अबुद्धीणं ? ॥ २९ ॥ तो भणइ कयन्तमुहो, महुराया नइ विसूलकयपाणी । तह वि य सत्तग्घेणं, जिप्पिहिइ रणेन संदेहो ॥ ३० ॥
इसके पश्चात स्नान-भोजन करके उसने माताको प्रणाम करके अनुमति माँगी। पुत्रको देखकर देवीने सिरको सँघा। (१४) तब माताने आशीर्वाद दिया कि पुत्र! युद्ध में शत्रुको जीतो और राज्य तथा मनचाहे विशाल भोगोंका सुचिर काल तक उपभोग करो। (१३) पुत्र ! संग्राममें यश प्राप्त करके यहाँ आए हुए तुमको देख मैं स्वर्ण कमलोंसे जिनेश्वरोंकी पूजा करूँगी। . (१६) हे शत्रुघ्न ! तीनों लोकमें मंगलरूप, सुर एवं असुरों द्वारा वन्दित, भयसे मुक्त तथा भवसमूहको जीतनेवाले जिन तम्हें मंगल प्रदान करें। (१७) संसार को दीर्घ बनानेवाले महाशत्रु मोहको जिन्होंने जीत लिया है ऐसे त्रिभुवनमें एकमात्र सूर्य सरीखे अरिहन्त तुम्हें मंगल प्रदान करें। (१८) हे पुत्र ! अठों प्रकारके कर्मसे विमुक्त होकर जो त्रिभुवनके अग्रभागमें रहते हैं ऐसे कार्य सिद्ध करनेवाले सिद्ध तुम्हारा कल्याण करें। (१६) मन्दराचल, सूर्य, चन्द्रमा, समुद्र, वसुधा, पवन, पृथ्वी, कमल और गगनके समान तथा अपने आचारको धारण करनेवाले आचार्य तुम्हें मंगल प्रदान करें । (२०) हे पुत्र ! स्वसिद्धान्त एवं पर सिद्धान्तके ज्ञाता, अनेक शास्त्रोंके अर्थको धारण करने में समर्थ ऐसे उपाध्याय तेरा सदा कल्याण करें। (२१) हे वत्स! बारह प्रकारके तपसे युक्त होकर जो निर्वाणकी साधना करते हैं वे साधु तुम्हारा दुस्साध्य कार्य सिद्ध करें। (२२) इस प्रकार आशीर्वाद दिया गया शत्रुघ्न माताको प्रणाम करके हथी पर सवार हुआ और सारी सेनाके साथ नगरी में से निकला । (२३)
एकदम सटे हुए घोड़ोंके समूह और उठ खड़े हुए हाथियोंके घटाटोपसे सम्पन्न तथा प्यादे एवं रथोंसे युक्त सेना मथुराकी ओर चल पड़ी। (२५) लक्ष्मणने वनावर्त धनुष, अग्निमुख बाण तथा दूसरे भी शस्त्र उसे शीघ्र ही दिये। (२५) कृतान्तवदन सेनापति उसे देकर मनमें शंकाशील राम लक्ष्मणके साथ लौट आए । (२६) महात्मा शत्रुघ्न भी सेनाके साथ प्रयाण करता हुआ आगे बढ़ा। मथुरापुरीसे दूर नदीमें उन्होंने शीघ्र ही डेरा डाला । (२७) श्रम दूर होने पर उन सब मंत्रियोंने परामर्श करके कैकेईके प्रमादी पुत्रसे कहा कि हमारा कहना सुनो । (२८) जिसने पूर्व कालमें अत्यन्त बलवान् गन्धारको युद्ध में जीत लिया था उस महात्मा मधुको अनजान तुम कैसे जीतोगे ? (६) तब कृतान्तवदनने कहा कि यद्यपि मधुराजाने हाथमें शूल धारण कर रखा है, तथापि इसमें सन्देह नहीं कि शत्रुघ्न द्वारा वह जीता जायगा। (३०) बड़ी-बड़ी
१. करिस्सामि प्रत्य० । २. ग्गमिणं । चि० प्रत्य० । ३. तुहं प्रत्य० । ४. गडिगज्जत. प्रत्य०। ५. केगइ.प्रत्य० ।
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