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८५. रज्जाहिसेयपव्वं सुणिऊण वयणमेयं, सब वि नराहिया तहिं गन्तुं । पायप्पडणोवगया, भणन्ति लच्छीहरं एत्तो ॥ अमनिओ गुरूणं, पालेहि वसुन्धरं अपरिसेसं । रज्जाभिसेयविहवं, अन्नेच्छमु सामि ! कीरन्तं ॥ अणुमन्नियंमि सहसा, काहल-तलिमा-मुइङ्गपउराईं । पहयाइ बहुविहाई, तूराई मेहघोसाइं ॥ वीणा-वंससणाहं, गीयं नड-नट्ट-छत्त-गोज्जेहिं । बन्दिनणेण सहरिसं, नयसद्दालोयणं च कयं ॥ कणयकलसेहि एत्तो, सबुवगरणेसु संपउत्तेसु । अह राम-लक्खणा ते, अहिसित्ता नरवरिन्देहिं ॥ वरहार-कडय-कुण्डल-मउडालंकारभूसियसरीरा । चन्दणकयङ्गरागा, सुगन्धकुसुमेसु कयमाला ॥ काऊण महाणन्दं, हलहर - नारायणा देणुवइन्दा | अहिसिञ्चन्ति सुमणसा, एत्तो सीयं महादेवि ॥ अहिसित्ता य विसल्ला, देवी लच्छीहरस्स हियइट्टा । जा सयलजीयलोए, गुणेहि दूरं समुबहइ ॥ अह ते सुहासणत्था, बन्दिनणुग्घुट्टजयजयारावा । दाऊण समाढत्ता, रज्जाई खेयरिन्दाणं ॥ पउमो तिकूडसिहरे, विभीसणं ठवइ रक्खसाहिवई । सुग्गीवस्स वि एत्तो, किक्विन्धि देइ परिसेसं ॥ सिरिपबयसिहरत्थं च सिरिपुरं मारुइस्स उदिद्धं । पडिसूरस्स हणुरुहं, दिन्नं नीलस्स क्खिपुरं ॥ पायालंकारपुरं, चन्दोयरनन्दणस्स दिन्नं तं । देवोवगीयनयरे, रयणनडी ठाविओ राया ॥ २७ ॥ भामण्डलो विभुञ्जइ, वेयड्ढे दक्खिणाऍ सेढीए । रहनेउरं ति नामं, नयरं सुरनयरसमविभवं ॥ २८ ॥ सेसा वि य नरवसभा, अणुसरिसाणं तु देसविसयाणं । पउमेण कया सामी, धण - नणरिद्धीसमिद्धाणं ॥ २९ ॥
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एवं नरिन्दा पउमेण रज्जं संपाविया उत्तमवंसनाया ।
भुञ्जन्ति देवा इव देवसोक्खं, आणाविसालं विमलप्पहावा ॥ ३० ॥ ॥ इइ पउमचरिए रज्जाभिसेयं नाम पञ्चासीइमं पव्वं समत्तं ॥
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यह वचन सुनकर सभी राजा वहाँ गये और पैरों में गिरकर लक्ष्मण से कहा कि गुरुजनोंने अनुमति दी है कि सम पृथ्वीरें । हे स्वामी ! किये जानेवाले राज्याभिषेक के वैभवकी आप इच्छा करें । (१६-१७) अनुमति मिलने पर सहसा काहल, तलिमा, मृदंग आदि बादल के समान घोष करनेवाले नानाविध वाद्य बजने लगे । (१८ नट, नृत्य करनेवाले और गानेवाले वीणा और बंशी के साथ गाने लगे । स्तुतिपाठकों ने आनन्द में आकर जयध्वनि की और लक्ष्मणके दर्शन किये । ( १ ) इसके अनन्तर उन राजाओंने सभी उपकरणों के साथ स्वर्णकलशोंसे राम एवं लक्ष्मणका अभिषेक किया (२० ) उत्तम हार, कटक, कुण्डल, मुकुट एवं अलंकारोंसे भूपित शरीरवाले, चन्दनका अंगराग किये हुए, सुगन्ध पुष्पोंकी माला धारण किये हुए दानवेन्द्र महान् राम और लक्ष्मणने तब बड़ा भारी श्रानन्द मनाकर प्रसन्न मनसे महादेवी सीताका अभिषेक किया । (२१-२२ ) जो गुणोंसे सारे जीवलोकको अत्यन्त आकर्षित करती है ऐसी लक्ष्मणकी प्रिया विशल्यादेवी भी अभिषिक्त हुई । (२३) स्तुतिपाठकों द्वारा 'जय जय' का उद्घोष जब किया जा रहा था तब वे सुखासन पर बैठकर खेचरेन्द्रोंको राज्य देने लगे । (२४) रामने त्रिकूटशिखर के ऊपर विभीषणको राक्षसाधिपति रूपसे स्थापित किया। तब सुग्रीवको बाकी बची हुई किष्किन्ध दी । (२१) श्री पर्वत के शिखर पर स्थित श्रीपुर हनुमानको दिया । प्रतिसूर्यको हनुरुहनगर और नीलको ऋक्षपुर दिया । (२६) पातालालंकारपुर चन्द्रोदरनन्दनको दिया । देवोपगीत नगर में रत्नजटी राजाको स्थापित किया । (२७) भामण्डल भी वैताढ्यकी दक्षिण श्रेणी में आये हुए देवनगर के समान वैभववा रथनूपुर नामक नगर का उपभोग करने लगा । (२८) रामने दूसरे भी राजाओं को धन, जन एवं ऋद्धि से सम्पन्न यथायोग्य देशोंका स्वामी बनाया | २९ ) इस प्रकार रामके द्वारा आज्ञा माननेवाला विशाल राज्य प्राप्त करके उत्तम वंश में उत्पन्न और विमल प्रभाववाले राजा देवोंकी भाँति देव सुखका उपभोग करने लगे । (३०)
॥ पद्मचरितमें राज्याभिषेक नामका पचासीवाँ पर्व समाप्त हुआ || १. ल-तिलिमा० प्रत्य० । २. ०णा मणुइन्दा मु० । ३. उवइटूटं मु० । ५६
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