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८५. रज्जाहिसेयपव्वं
भरण समं धीरा, निक्खन्ता जे तहिं विगयसङ्गा । नामाणि ताण सेणिय !, भणामि उल्लावमेतेणं ॥ १ ॥ सिद्धत्थो य नरिन्दो, तहेव रइवद्धणो य संञ्झत्थो । घणवाहरहो नम्बूणओ य सल्लो ससङ्को य ॥ २ ॥ विरसो य नन्दणो वि य, नन्दो आणन्दिओ सुबुद्धी य । सूरो य महाबुद्धी, तहेब सच्चासओ वीरो ॥ ३॥ इन्दाभो य सुयधरो, तहेव जणवल्लहो सुचन्दो य । पुहईधरो य सुमई, अयलो कोधो हरी चेव ॥ ४ ॥ अह कण्डुरू सुमित्तो, संपुण्णिन्दू य धम्ममित्तो य । नघुसो सुन्दरसत्ती, पहायरो चेव पियधम्मो ॥ ५ ॥ एए अन् य बहू, नरवसभा उज्झिऊण रज्जाई । सहसाहिय संखाणा, जाया समणा समियपावा ॥ ६॥ अणुपालयवयनियमा, नाणालद्धीसु सत्तिसंपन्ना । पण्डियमरणोवगया, जहागुरूवं पयं पत्ता ॥ ७ ॥ निक्खन्ते च भरहे, भरहोवमचेट्टिए गुणे सरिडं । सोगं समुवहन्तो विराहियं लक्खणो भणइ ॥ ८ ॥ कत्तो सो भरहमुणी, जो तरुणत्तंमि ऊज्झिउं रज्जं । सुकुमालकोमलङ्गो, कह धम्मधुरं समुवहइ ॥ ९ ॥ सोऊण वयणमेयं, विराहिओ भणइ सामि ! सो भरहो । केवलनाणसमग्गो, पत्तो सिवसासयं ठाणं ॥ १० ॥ भरहं निबाणगयं, पउमाईया भडा निसुणिऊणं । अइदुक्खिया मुहुत्तं, तत्थ ठिया सोगसंत्ता ॥ पउमे समुट्टिए ते, निययवराई गया नरवरिन्दा । काऊण संपहारं पुणरवि रामालयं पत्ता ॥ मऊ राहवं ते, भणन्ति निसुणेहि सामि ! वयणऽम्हं । रज्जाभिसेयविभवं, अन्नेच्छसु पट्टबन्धं च ॥ रामो भइ नरवई, मिलिया तुम्भे हि परमंविभवेण । नारायणस्स संपइ, करेह रज्जाभिसेयं से ॥ भुञ्जन्तो सत्तगुणं, इस्सरियं सयलमेइणीनाहो । जं नमइ इमो चलणे, संपइ तं किं न मे रज्जं ? ॥
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८५. लक्ष्मणका राज्याभिषेक
हे श्रेणिक ! भरतके साथ आसक्तिका परित्याग करके जो धीर निकल पड़े थे उनके नाम कहनेभरके लिए कहता हूँ । (१) सिद्धार्थ राजा तथा रतिवर्धन, सन्ध्य घनवाहरथ, जाम्बूनद, शल्य, शशांक, विरस, नन्दन, नन्द, आनन्दित, सुबुद्धि, सूर्य, महाबुद्धि, तथा वीर सत्याशय, इन्द्राभ श्रुतवर, जनवल्लभ सुचन्द्र, पृथ्वीधर, सुमति, अचल, क्रोध, हरि, काण्डोरु, सुमित्र, सम्पूर्णेन्दु, धर्ममित्र, नघुप, सुन्दरशक्ति, प्रभाकर, प्रियधर्म - इन तथा दूसरे बहुत-से सहस्र से भी अधिक संख्यामें राजाओंने राज्यका परित्याग किया और पापका शमन करनेवाले श्रमण हुए। ( २-६ ) व्रत नियमका पालन करके, नाना लब्धियों से शक्तिसम्पन्न उन्होंने पण्डितमरणसे युक्त हो यथानुरूप पद प्राप्त किया । ( ७ )
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जब भरतने अभिनिष्क्रमण किया तब भरत चक्रवर्ती के समान उसके आचरण और गुणों को याद करके शोक धारण करनेवाले लक्ष्मणने विराधित से पूछा कि वे भरतमुनि कहाँ हैं जिन्होंने तरुणवस्था में ही राज्यका त्याग कर दिया है । सुकुमार और कोमल अंगवाले वे धर्मधुराका उदूहन कैसे करते होंगे ? ( = -६) यह कथन सुनकर विराधितने कहा कि, हे स्वामी ! केवलज्ञानसे युक्त उन्होंने शाश्वत मोक्षपद प्राप्त किया है । (१०) मोक्ष में गये हुए भरत के बारेमें सुनकर अत्यन्त दुःखित राम आदि सुभट शोक सन्तप्त होकर मुहूर्तभर वहीं ठहरे। (११) रामके उठने पर वे राजा अपने-अपने घर पर गये और निश्चय करके पुनः रामके महल में आये । ( १२ ) रामको प्रणाम करके उन्होंने कहा कि, हे स्वामी ! हमारा कहना आप सुनें । राज्याभिषेक के वैभव और पट्टबन्धकी आप इच्छा करें । (१३) रामने राजाओंसे कहा कि तुम मिलकर अब परम वैभवके साथ नारायण लक्ष्मणका राज्याभिषेक करो । ( १४) सत्त्वगुणसे युक्त ऐश्वर्य का उपभोग करनेवाला और सारी पृथ्वीका स्वामी यह (लक्ष्मण) मेरे चरणोंमें जो वन्दन करता है, वह क्या मेरा राज्य नहीं है ? (१५)
१. संघत्थो प्रत्य० । २. सहसा हियसंपण्णा प्रत्य० । ३. णिसिमिऊणं प्रत्य० । ४. • मविणण प्रत्य• । ५. संतगुणं प्रत्य• ।
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