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पउमचरियं
[८२. १२१संसारं दुक्खसारं परिभमिय चिरं माणुसरा लहेउं, तुम्भेत्थं धम्मकज्जं कुणह सुविमलं बुद्धिमन्तोऽपमत्ता ॥ १२१ ॥
॥ इइ पउमचरिए तिहुयणालंकारपुव्वभवाणुकित्तणं नाम बासीइमं पव्वं समत्तं ।।
८३. भरह-केगईदिक्खापव्वं तं मुणिवरस्स वयणं, सुणिऊणं भरहमाइया सुहडा । बहवे संवेगपरा, दिक्खाभिमुहा तओ नाया ॥ १ ॥ एयन्तरंमि भरहो, समुट्ठिओ कुण्डलुज्जलकवोलो । आबद्धञ्जलिमउलो, पणमइ साहुं विगयमोहो ॥ २ ॥ संसारभउबिम्गो, भरहो तं मुणिवरं भणइ एत्तो । बहुजोणिसहस्साई, नाह ! भमन्तो य खिन्नो हं ॥ ३ ॥ मरणतरङ्गग्गाए, संसारनईए वुज्झमाणस्स । दिक्खाकरेण साहव !, हत्थालम्ब पयच्छाहि ॥ ४ ॥ अणुमन्निओ गुरूणं, भरहो मोत्तण तत्थऽलंकारं । निस्सेससंङ्गरहिओ, लुञ्चइ धोरो निययकेसे ॥ ५ ॥ वय-नियम-सील-संजम-गुणायरो दिक्खिओ भरहसामी । जाओ महामुणी सो, रायसहस्सेण अहिएणं ॥ ६ ॥ साहु ति साहु देवा, जंपन्ता संतयं कुसुमवासं । मुश्चन्ति नहयलत्था, संथुणमाणा भरहसाहुं ॥ ७ ॥ अन्ने सावयधम्म, संवेगपरा लएन्ति नरवसभा । एयन्तरंमि भरह, पबइयं केगई सोउं ॥ ८ ॥ मुच्छागया विउद्धा, पुत्तविओयम्मि दुक्खिया कलुणं । धेणु व वच्छरहिया, कुणइ पलावं पयलियंसू ॥ ९ ॥ सबन्तेउरसहिया, रुयमाणी केगई महादेवी । महुरखयणेहि एत्तो, संथविया राम-केसीहिं ॥ १० ॥ अह सा उत्तमनारी, पडिबुद्धा तिबनायसंवेगा । निन्दइ निययसरोरं, बीभच्छं असुइदुग्गन्धं ॥ ११ ॥
नारीण सएहि तिहिं, पासे अज्जाएँ पुहइसच्चाए । पबइया दढभावा, सिद्धिपयं उत्तमं पत्ता ॥ १२॥ जानों, दुःखरूप संसारमें घूमकर और चिरकालके पश्चात् मानवभव पाकर बुद्धिमान तुम अप्रमत्तभावसे यहाँ अत्यन्त विमल धर्मकार्य करो। (१२१)
॥ पद्मचरितमें त्रिभुवनालंकारके पूर्वभवोंका कीर्तन नामक वयासीवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥
८३. भरत और कैकेईकी दीक्षा . मुनिवरका वह उपदेश सुनकर संवेगपरायण भरत श्रादि बहुत-से सुभट दीक्षाकी ओर अभिमुख हुए। (१) कुण्डलोंके कारण उज्ज्वल कपोलवाला तथा मोहरहित भरत खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर उसने साधुको प्रणाम किया । (२) संसारके भयसे उद्विग्न भरतने उस मुनिवरसे कहा कि, हे नाथ ! नानाविध हजारों योनियोंमें भ्रमण करता हुआ मैं खिन्न हो गया हूँ। (३) हे मुनिवर ! मरण रूपी तरंगों उग्र ऐसी संसार रूपी नदीमें डूबते हुए मुझे आप दीक्षा रूपी हाथसे सहारा दें। (४) समग्र प्रकारके संगसे रहित और गुरुजनों द्वारा अनुमत धीर भरतने अलंकार का त्याग करके अपने बालोंका लोंच किया (५) व्रत, नियम, शील, संयम एवं गुणोंके निधिरूप भरतस्वामीने हज़ारसे अधिक राजाओंके साथ दीक्षा ली। वह महामुनि हुआ । (६) 'साधु, साधु' ऐसा बोलते हुए और भरतमुनिकी प्रशंसा करते हुए आकाशस्थ देव सतत पुष्प वृष्टि करने लगे।(७) संवेगपरक दूसरे राजाओं ने श्रावकधर्म अंगीकार किया। उस समय भरतने दीक्षा ली है ऐसा सुनकर कैकेई मृच्छित हो गई। होशमें आने पर पुत्रके वियोगसे दुःखित वह बछड़े से रहित गायकी भाँति आँसू बहाती हुई करुण प्रलाप करने लगी। (८-९) सारे अन्तःपुरके साथ रोती हुई महादेवी कैकेईको राम और लक्ष्मणने मधुर बचनोंसे शान्त किया । (१०) तब वह उत्तम स्त्री प्रतिबुद्ध हुई। तीव्र संवेग पैदा होने पर वह बीभत्स, अशुचि और दुर्गन्धमय अपने शरीरकी निन्दा करने लगी। (११) तीन सौ स्त्रीयोंके साथ उसने आर्या पृथ्वीसत्याके पास दीक्षा ली।
१. न्ता समत्ता प्रत्य० । २. विगययणेहो प्रत्य० । ३. ०ए बुडमाणस्स प्रत्य० : ४. सगंधरहिओ प्रत्यः ।
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