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८४. ११ ]
८४. भरहनिव्वाणगमणपव्वं
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एवं जो तत्थ सुभावियप्पा, नाणावओवासनिओयचित्तो । जाओ महुच्छाहपरो समत्थो, धम्मं च निच्चं विमलं करेइ ॥ १३ ॥ ॥ इइ पउमचरिए भरह के गईदिक्खाभिहाणं तेयासीइमं पव्वं समत्तं ॥ ८४. भरहनिव्वाणगमणपव्वं
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सो गयवरो मुणीणं, वयाणि परिलम्भिओ पसन्नप्पा | सागारधम्मनिरओ', नाओ तवसंनमुज्जुत्तो ॥ १ ॥ छट्टट्टमदसमदुवालसेहि मासद्ध मासखमणेहिं । भुञ्जइ य एकवेलं, पत्ताई सहावपडियाइं ॥ २ ॥ संसारगमणभीओ, सम्मत्तपरायणो मिसहावो । विहरइ पूइज्जन्तो, ससंभ्रमं नायरजणेणं ॥ लड्डुगमण्डादीया, भक्खा नाणाविहा रससमिद्धा । तस्स सुपसन्नहियओ, पारणसमए जणो देइ ॥ तणुकम्म सरीरो सो, संवेगालाणणियम संजमिओ । उग्गं तवोविहाणं, करेइ चत्तारि वरिसाइं संलेहणं च काउं, कालगओ सुरवसे समुप्पन्नो । बम्भुत्तरे विमाणे, हारङ्ग कुण्डलाहरणो ॥ सुरगणियामज्झगओ, उबगिज्जन्तो य नाडयसएसु । पुवसुहं संपत्तो, हत्थी सुकाणुभावेणं ॥ ७ ॥ भरहो वि महासमणो, पञ्चमहबयधरो समिइजुत्तो । मेरु व धीरगरुओ सलिलनिही चेव गम्भीरो ॥ ८ ॥ समसत्तुमित्तभावो, समसुहदुक्खो पसंसनिन्दसमो । परिभमइ महिं भरहो, जुगंतरपलोयणो धीरो ॥ ९ ॥ भरहो वि तवबलेणं, निस्सेसं कम्मकयवरं डहिउँ । केवलनाणसमग्गो, सिवमयलमणुत्तरं पत्तो ॥ १० ॥ इमा कहा भरहमुणिस्स संगया, सुणन्ति जे वियलियमच्छरा नरा ॥
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लहन्ति ते घणबलरिद्धिसंपयं, विसुद्धधीविमलनसं सुहालयं ॥ ११ ॥ ॥ इइ पउमचरिए भरनिव्वाणगमणं नाम चउरासीइमं पव्वं समत्तं ॥
हृदभाववाली उसने उत्तम सिद्धिपद प्राप्त किया । ( १२ ) इस प्रकार वहाँ सब लोग सुन्दर भावोंसे वासित अन्तःकरण वाले, तथा मनमें नाना प्रकारके व्रत, उपवास एवं नियमों को धारण करके अत्यन्त उत्साहशील हुए। वे नित्य विमल धर्मका आचरण करने लगे । (१३)
॥ पद्मचरित भरत एवं कैकेईकी दीक्षाका अभिधान नामक तिरासीवाँ पर्व समाप्त हुआ ||
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८४. भरतका निर्वाण
चार,
मुनिके उपदेशको पाकर प्रसन्नात्मा वह हाथी सागारधर्म में निरत हो तप व संयममें उद्यत हुआ । (१) दो, तीन, , पाँच उपवास तथा वे मास एवं पूरे मासके उपवासके पश्चात् अपने आप गिरे हुए पत्तोंका एक बार वह भोजन करता था । (२) संसार में भ्रमणसे डरा हुआ, सम्यक्त्वपरायण, मृदु स्वभाववाला और नगरजनों द्वारा आदरपूर्वक पूजा जाता वह विचरण करता था । (३) प्रसन्न हृदयवाले लोग पारनेके समय उसे लड्डू, घी आदि रससे समृद्ध नानाविध भक्ष्य पदार्थ देते थे । (४) कर्म रूपी शरीरको क्षीण करनेवाले तथा नियम एवं संवेग रूपी खम्भे से संयमित उसने चार वर्ष तक उग्र तप किया । (५) संलेखना करके मरने पर वह ब्रह्मोत्तर विमानमें हार, बाजूबन्द एवं कुण्डलोंसे अलंकृत देव रूपसे उत्पन्न हुआ । (६) हाथीके जन्ममें उपार्जित पुण्यके फलस्वरूप देवगणिकाओं के मध्य में स्थित तथा सैकड़ों नाटकों में मन लगाकर उसने पहलेका सुख पाया । (७) प्रेरुके समान धीर और महान् तथा समुद्र के समान गम्भीर भरत महाश्रमण भी पाँच महाव्रतका धारी और समितियुक्त हुआ । (८) शत्रु एवं मित्रमें समभाव रखनेवाला, सुख एवं दुःख में सम, प्रशंसा व निन्दामें भी तटस्थ तथा साड़े तीन कदम आगे देखकर चलने वाला वह धीर भरत पृथ्वी पर परिभ्रमण करने लगा । (९) तपके बलसे समग्र कर्म - कलेवर को जलाकर केवलज्ञान से युक्त भरतने अचल और अनुत्तर मोक्ष प्राप्त किया । (१०) भरत मुनिकी यह कथा मत्सरसे रहित जो मनुष्य इकट्ठे होकर सुनते हैं वे धन, बल, ऋद्धि, सम्पत्ति, विशुद्ध बुद्धि, विमल यश तथा सुखका आलय रूप मोक्ष प्राप्त करते हैं । (११) ॥ पद्मचरित भरतका निर्वाणगमन नामका चौरासीवाँ पर्व समाप्त हुआ | १. ० निरतो, तव - संजमकरणउज्जुत्तो प्रत्य० । २. मम्मि वर विमाणे, प्रत्य०। ३. मही भरहो, चउरंगुलचारणो धोरो मु० । ४. सुणंतु प्रत्य• ।
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