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७०. उज्जोयविहाणपव्वं आणवसु केरिसी हं, होमि पहू ! जा तुम हिययइट्टा । किं सयलपङ्कयसिरी?, अहवा वि सुरिन्दवहुसरिसा ? ॥ २४ ॥ सो एव भणियमेत्तो. अहोमुहो लजिओ विचिन्तेइ । परमहिलासत्तो है, अकित्तिलहुयत्तणं पत्तो ॥ २५ ॥ अह सो विलक्खहसियं, काऊण य भणइ अत्तणो कन्तं । तं मज्झ हिययइट्टा, अहियं अन्नाण महिलाणं ॥ २६ ॥ लद्धपसायाएँ तओ, भणिओ मन्दोयरीऍ दहवयणो। किं दिणयरस्स दीवो, दिज्जइ विहु मग्गणट्टाए ? ।। २७ ॥ जाणन्तो वि नयविही, कह वि पमायं गओ विहिवसेणं । तह वि य पबोहणीओ, हवइ नरो अन्नपुरिसेणं ॥ २८ ॥ आसि पुरा मुणिवसहो, विण्हू वेउबलद्धिसंपन्नो । सिद्धन्त-गीइयासु य किं न पबोहं तया नीओ? ॥ २९ ॥ जइ पयणुओ वि कीरइ, मज्झ पसाओ इमं भणन्तीए । तो मुञ्चसु नाह ! तुमं, 'सीया रामस्स हियइट्टा ॥ ३० ॥ तुह अणुमएण सीया, नेऊणं राहवं पसाएमि । आणेमि भागुकण्णं, पुत्ता य अलं रणमुहेणं ॥ ३१ ।। सो एव भणियमेत्तो, जंपइ लङ्काहिवो परमरुट्टो । लहु गच्छ गच्छ पावे!, जत्थ मुहं ते न पेच्छामि ॥ ३२ ॥ एव भणियं पवुत्ता, सुणसु पहू ! बहुजणेण जं सिटुं । हलहर-चक्कहराणं, जम्म पडिवासुदेवाणं ॥ ३३ ॥ आसि तिविट्ठ दुविट्ट , सयंभु पुरिसोत्तमो पुरिससीहो । पुरिसवरपुण्डरीओ, दत्तो वि हु केसवा एए ॥ ३४ ॥ अयलो विजय सुभद्दो य सुप्पहो तह सुदरिसणो चेव । आणन्द नन्दणो वि य, इमे वि हलिणो वइकन्ता ॥ ३५॥ अह भारहम्मि वासे, एए बल-केसवा वइक्वन्ता । संपइ वट्टन्ति इमे, राहव-नारायणा लोए ॥ ३६॥ एएहि तारगाई, पडिसत्त घाइया तिखण्डवई । संपइ सामि विणासं, तुहमवि गन्तुं समुच्छहसि ॥ ३७॥ भोत्तण कामभोए, पुरिसा जे संजमं समणुपत्ता । ते नवरि वन्दणिज्जा, हवन्ति देवा-ऽसुराणं पि ॥ ३८ ॥
तम्हा तुमे वि सामिय!, भुत्तं चिय उत्तम विसयसोक्खं । भमिओ य जसो लोए, संपइ दिक्खं पवज्जासु ॥ ३९ ॥ आज्ञा दें कि मैं कैसी होऊँ, जिससे आपके हृदयको मैं प्रिय लगें। क्या मैं सब पद्मों की शोभाको धारण करूँ अथवा देवकन्या जैसी बनूँ ? (२४) इस तरह कहा गया वह नीचा मुँह करके लजित हो सोचने लगा कि परनारीमें आसक्त मैंने अपयश और लघुता प्राप्त की है। (२५) तब लज्जासे हँसकर उसने अपनी पत्नीसे कहा कि तुम अन्य स्त्रियोंकी अपेक्षा मेरे हृदयको अधिक प्रिय हो । (२६) तब प्रसन्न होकर मन्दोदरीने रावणसे कहा कि क्या सूर्यको ढूँढ़नेके लिए दीया दिखाया जाता है ? (२७) नीतिका मार्ग जाननेपर भी भाग्यवश किसी तरहसे प्रमाद आ गया हो तो वह मनुष्य अन्य पुरुष द्वारा जगाया जाना चाहिए। (२८) प्राचीन कालमें वैक्रियक लब्धिसम्पन्न विष्णु नामक एक मुनिवर थे। क्या वह सिद्धान्त-गीतिकाओं द्वारा उस समय जागृत नहीं किये गये थे? (२९) इस प्रकार कहती हुई मुझपर यदि आपका स्वल्प भी अनुग्रह है तो, हे नाथ! आप रामकी हृदयप्रिया सीताको छोड़ दें। (३०) आपकी अनुमतिसे सीताको ले जाकर में रामको प्रसन्न करूँ और भानुकर्ण तथा पुत्रोंको लौटा लूँ। इस तरह युद्धसे आप विरत हों। (३१) इस प्रकार कहा गया रावण अत्यन्त रुष्ट होकर कहने लगा कि, हे पापे ! जल्दी-जल्दी यहाँसे तू वहाँ चली जा जहाँ में तेरा मुँह न देख पाऊँ। (३२) तब उसने ऐसा कहा कि, हे प्रभो! ज्ञानी जनोंने हलधर, चक्रधर तथा प्रतिवासुदेवोंके जन्मके बारेमें जो कहा है वह आप सुनें। (३३) त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयम्भू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह. पुरुषवर, पुण्डरीक और दत्त-ये केशव थे। (३४) अचल, विजय, सुभद्र, सुप्रभ, सुदर्शन, आनन्द और नन्दन-ये हलधर हो चुके हैं। (३५) भारतवर्ष में ये बलदेव और केशव हो चुके हैं। इस समय लोकमें ये राघव और नारायण विद्यमान हैं। (३६) इन्होंने तीन खण्डोंके स्वामी तारक आदि विरोधी शत्रुओंको मार डाला है। हे स्वामी! अब आप भी विनारा प्राप्त करना चाहते हैं। (३७) काम भोगोंका उपभोग करके जो पुरुष संयम प्राप्त करते हैं वे बादमें देव एवं असुरोंके लिए वन्दनीय होते हैं । (३८) हे स्वामी! आपने उत्तम विषय सुखका उपभोग किया है और आपका यश लोकमें फैल गया है। अब आप दीक्षा अंगीकार करें। (३६) अथवा हे दशमुख ! अणुव्रत धारण करके शील व संयममें निरत हों और देव एवं गुरुमें भक्तियुक्त
१. सौयं रामस्स हियइ8--प्रत्य। २. सीयं--प्रत्य० ।
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