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७४. पीयंकरउवक्खाणपव्वं रुब्भन्तं पि अहिमुह, तह वि समल्लियइ चक्करयणं तं । पुण्णावसाणसमए, सेणिय ! मरणे उवगयम्मि ॥ २६ ॥ अइमाणिणस्स एत्तो, लङ्काहिवइस्स अहिमुहस्स रणे । चक्केण तेण सिग्छ, छिन्नं वच्छत्थलं विउलं ॥ २७ ॥ चण्डाणिलेण भग्गो, तमालघणकसिणअलिउलावयवो । अञ्जणगिरिब पडिओ, दहवयणो रणमहीवटे ॥ २८ ॥ सुत्तो व कुसुमकेऊ, नज्जइ देवो व महियले पडिओ। रेहइ लङ्काहिवई, अत्थगिरित्थो व दिवसयरो ॥ २९ ॥ एत्तो निसायरबलं. निहयं दळूण सामियं भग्गं । विवरम्मुहं पयट्ट, संपेल्लोप्पेल्ल कुणमाणं ॥ ३० ॥ जोहो तुरङ्गमेणं, पेल्लिज्जइ रहवरो गंयवरेणं । अइकायरो पुण भडो, विवडइ तत्थेव भयविहलो ॥ ३१ ॥ एवं पलायमाणं, निस्सरणं तं निसायराणीयं । आसासिउं पयत्ता, सुग्गीव-बिहीसणा दो वि ॥ ३२ ॥ मा भाह मा पलायह, सरणं नारायणो इमो तुम्हें । वयणेण तेण सेणिय !, सवं आसासियं सेन्नं ॥ ३३ ॥ जेट्टस्स बहुलपक्खे, दिवसस्स चउत्थभागसेसम्मि । एगारसीएँ दिवसे रावणमरणं वियाणाहि ॥ ३४ ॥ एवं पुण्णावसाणे तुरय-गयघडाडोवमझे वि सूरा, संपत्ते मच्चुकाले असि-कणयकरा जन्ति नासं मणुस्सा । उज्जोएउंसतेओ सयलनयमिणं सो वि अत्थाइ भाणू , जाए सोक्खप्पओसे स विमलकिरणो किन चन्दो उवेइ ? ॥३५॥
॥ इइ पउमचरिए दहवयणवहविहाणं नाम तिहत्तर पव्वं समत्तं ।।
७४. पीयंकरउवक्खाणपवयं ठूण धरणिपडियं, सहोयरं सोयसल्लियसरीरो । छुरियाएँ देइ हत्थं, विहीसणो निययवहकजे ॥ १ ॥ श्रेणिक! पुण्यके नाशके समय मरण उपस्थित होने पर सम्मुख आते हुए चक्ररत्नको रोकने पर भी वह आ लगा । (२६) तब अत्यन्त अभिमानी और युद्ध में सामने अवस्थित लंकाधिपति रावणका विशाल वक्षस्थल उस चक्रने शीघ्र ही चीर डाला। (२७) तमाल वृक्ष तथा भौरोंके समान अत्यन्त कृष्ण अवयव वाला रावण, प्रचण्ड वायुसे टूटे हुए अंजनगिरिकी भाँति, युद्धभूमि पर गिर पड़ा । (२८) ज़मीन पर गिरा हुआ लंकाधिपति सोये हुए कामदेवकी भाँति, एक देवकी भाँति और अस्ताचल पर स्थित सूर्यकी भाँति प्रतीत होता था। (२६)
अपने स्वामीका वध देखकर राक्षस-सेना भाग खड़ी हुई और दवाती-कुचलती विवरकी ओर जाने लगी। (३०) उस समय घोड़ेसे योद्धा और हाथीसे रथ कुचला जाता था। अतिकातर भट तो भयसे विह्वल हो वहीं पर गिर पड़ता था। (३१) इस तरह पलायन करती हुई अशरग राक्षस-सेनाको सुग्रीव और विभीषण दोनों ही आश्वासन देने लगे कि तुम मत डरो, मत भागो। यह नरायण तुम्हारे लिए शरणरूप है। हे श्रेणिक! इस कथन से सारा सैन्य आश्वस्त हुआ। (३२) ज्येष्ट मासके कृष्णपक्षकी एकादशीके दिन दिवसका चौथा भाग जब वाकी था तव रावणका मरण हुआ ऐसा तुम जानो (३३)
इस प्रकार पुण्यका नाश होने पर जब मृत्युकाल आता है तब घोड़े और हाथियोंके समूहके बीच स्थित होने पर भी हाथमें तलवार और कनक धारण करनेवाले शूर मनुष्य भी नष्ट हो जाते हैं। जो अपने तेज से इस सारे जगत्को आलोकित करता है वह सूर्य भी अस्त होता है। सुखरूपी प्रदोषकालके आने पर विमल किरणों वाला चन्द्र क्या नहीं आता ? (३५)
॥ पद्मचरितमें रावणके बधका विधान नामक तिहत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ।
७४. प्रियंकरका उपाख्यान जमीन पर गिरे हुए अपने सहोदर भाईको देख शोकसे पीड़ित शरीरवाले विभीषणने अपने वधके लिए छुरीको हाथ लगाया। (१) तब रामके द्वारा रोका गया वह बेसुध होकर पुनः आश्वस्त हुआ। फिर सहोदर भाईके पास जाकर
१. गयरहेणं प्रत्य० ।
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