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पउमचरियं
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परमप्पस पडिमा विसुद्धवरपउमरागनिम्माणा । पउमो पियाए सहिओ, संधुणइ विसुद्धभावेणं ॥ अन्ने विलक्खणाई, सुहडा परिवन्दिऊण उवविट्टा । तत्थेव निणाययणे अच्छन्ति कहाणुबन्धेणं ॥ विज्जाहरी ताव य, पहाणविही विरइया महिडीया । रामस्स लक्खणस्स य सीयाए तहाविसल्लाए ॥ वेरुलियण्हाणपीढे, ताण य उवविट्टयाण मज्जणयं । बहुतूर - सङ्खपउरं वत्तं चिय कणयकलसेहिं ॥ हाओ अलंकित, पउमो पउमप्पभं पणमिऊणं । भत्तस्स गिरिसरिच्छं, तत्थ य रइयं निवेयणयं ॥ परमो लक्खणसहिओ, अन्नो वि य परियणो समन्तियणो । भोयणघरं पविट्टो, भुञ्जइ नाणाविहं भत्तं ॥ मिउसुरहिसा उकलियं, पञ्चण्हं चेव इन्दियत्थाणं । इटुं सुहं मणोज्जं इच्छाए भोयणं भुत्तं ॥ सम्माणिया य सबे, विज्जाहरपन्थिवा सविभवेणं । वरहार- कडय-कुण्डल- वत्था - ऽलंकारमादीसु ॥ निव्वत्तभोयणा ते, जंपन्ति सुहासणट्टिया सुहडा । रक्खसवंसस्स अहो !, विभीसणो भूसणो जाओ ॥ एत्तो विहीसणाई, सबे विज्जाहरा कयाडोवा । रज्जाहिसेयकज्जे, उवट्टिया पउमणाहस्स ॥ तो भइ पउमणाहो, भरहो अणुमन्निओ मह गुरूणं । रज्जे रज्जाहिबई, सयलसमत्थाएं वसुहाए ॥ अभिसेयमङ्गलत्थे, दीसइ दोसो महापुरिसचिण्णो । भरहो सोऊणऽम्हे, भणियं च एवमेयं, सबेहि वि खेयहि मिलिएहिं । लङ्कापुरीए रामो, सबे वि खेयरभडा, तत्थेव ठिया पुरीए वलसहिया । अमरा इव सुरलोए, अइसयगुणरिद्धिसंपन्ना ॥ पउमो सीयाए समं, भुञ्जन्तो उत्तमं विसयसोक्खं । दोगुन्दुगो व देवो, गयं पि कालं न लक्खेइ ॥ ४१ ॥ सम्गसरिसो वि देसो, पियविरहे रण्णसन्निहो होइ । इट्ठजणसंपओगे, रण्णं पि सुरालेयं जिइ ॥ ४२ ॥
संविग्गो होहइ कयाई ॥ अच्छर इन्दो व सुरलोए
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विशुद्ध और उत्तम पद्मरागसे निर्मित पद्मप्रभ की प्रतिमा की प्रिया के साथ रामने विशुद्ध भावसे स्तुति की । (२७) लक्ष्मण आदि दूसरे भी सुभट वन्दन करके बैठे और वातचीत करते-करते उसी जिनमन्दिरमें ठहरे । (२८) तव विद्याधरियोंने राम, लक्ष्मण, सीता तथा विशल्या के लिए महान वैभवशाली स्नानविधि की । (२६) वैडूर्यके बने स्नानपीठों पर बैठे 'हुए उनको सोनेके कलशोंसे स्नान कराया गया। उस समय बहुत से वाद्य एवं शंख बजाये गये । (३०) स्नात और अलंकृत शरीरवाले रामने पद्मप्रभ भगवानको वन्दन करके अन्नका पर्वतसदृश नैवेद्य रचा । (३१) पश्चात् लक्ष्मण तथा मंत्रियोंसे युक्त दूसरे परिजनोंके साथ रामने भोजनगृह में प्रवेश किया और नाना प्रकारके थाहारका उपभोग किया । (३२) मृदु, सुरभि चौर स्वादु, पाँचों इन्द्रियके लिए इट, सुखकर और मनोज्ञ ऐसा भोजन उन्होंने इच्छानुसार लिया । (३३) बादमें उत्तम हार, कटक, कुण्डल, वरू एवं अलंकार आदि से उन्होंने सब विद्याधर राजाओंका वैभवके साथ सम्मान किया । (३४) भोजनसे निवृत्त और सुखासन पर बैठे हुए वे सुभट कहते थे कि, अहो ! विभीषण राक्षसवंशका भूषण हुआ है । (३५)
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इसके अनन्तर सब विद्याधर मिलकर राज्याभिषेक के कार्यके लिए रामके पास उपस्थित हुए । ( ३६ ) तब रामने कहा कि मेरे गुरुजनने समस्त पृथ्वी के राज्यका राजा भरत होगा ऐसा स्वीकार किया था । (३७) अतः अभिषेक-मंगल में महापुरुषों द्वारा अंगीकृत दोष दीखता है । हमारे बारेमें सुनकर भरत कदाचित् विरक्त हो जाय । (३८) सब विद्याधरोंने मिलकर कहा कि ऐसा ही हो । सुरलोक में इन्द्रकी भाँति राम लंकापुरी में ठहरें । (३६) गुण और ऋद्धिसे अत्यन्त सम्पन्न सब खेचर-सुभट देवलोकमें देवोंकी भाँति, उसी नगरीमें सेना के साथ ठहरे । (४०)
सीता के साथ उत्तम विषयसुखका उपभोग करते हुए दोगुन्दुक देव के जैसे राम बीते हुए कालको नहीं जानते थे । ( ४१ ) प्रियके विरह में स्वर्ग सदृश देश भी अरण्यतुल्य हो जाता है और इष्टजनका मिलन होने पर अरण्य भी देवलोकको जीत लेता
9. • लयं होइ प्रत्य• ।
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