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७७. मयवक्खाणपव्वं
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एयन्तरे सुमाली, विहीसणो मालवन्तनामो य । रयणासवमाईया, घणसोयसमोत्थयसरीरा ॥ ११ ॥ दळूण ते बिसण्णे, नंपइ पउमो सुणेह मह वयणं । सोगस्स मा हु सङ्गं. देह मणं निययकरणिज्जे ॥ १२ ॥ इह सयलजीवलोए, जं जेण समज्जियं निययकम्मं । तं तेण पावियब, सुहं च दुक्खं च जीवेणं ॥ १३ ॥ जाएण य मरियवं, अवस्स जीवेण तिहुयणे सयले । तं एव जाणमाणो, संसारठिई मुयसु सोगं ॥ १४ ॥ खणभङ्गरं सरीरं, कुसुमसमं जोवणं चलं जीयं । गयकण्णसमा लच्छी, सुमिणसमा बन्धवसिणेहा ॥ १५ ॥ मोत्तण इमं सोगं, सबे तुम्हे वि कुणह अप्पहियं । उज्जमह जिणवराणं, धम्मे सवाएँ सत्तीए ॥ १६ ॥ महुरक्खरेहि एवं, संथाविय रहुवईण ते सधे । निययघराई उवगया, सुमणा ते बन्धुकरणिज्जे ॥ १७॥ ताव विहीसणघरिणी, जुवइसहस्ससहिया महादेवी । संपत्ता य वियड्डा, पउमसयासं सपरिवारा ॥ १८ ॥ पायप्पडणोवगया, पउमं विन्नवइ लक्खणेण समं । अम्हं अणुग्गहत्थं, कुणह घरे चलणपरिसङ्ग ॥ १९ ॥ नाव चिय एस कहा, वदृइ एत्तो विहीसणो ताव । भणइ य पउम ! घर मे, वच्च तुमं कीरउ पसाओ ॥ २० ॥ एव भणिओ पयट्टो, गयवरखन्धट्टिओ सह पियाए । सयलपरिवारसहिओ, संघटेन्तजणनिवहो ॥ २१ ॥ गय-तुरय-रहवरेहि, जाणविमाणेहि खेयरारूढा । वच्चन्ति रायमग्गे, तूरखुच्छलियकयचिन्धा ॥ २२ ॥ पत्ता बिहीसणघरं, मन्दरसिहरोवमं जगजगेन्तं । वरजुवइगीयवाइय-निच्चकयमङ्गलाडोवं ॥ २३ ॥ अह सो बिहीसणेणं, रयणग्याईकओवयारो य । सीयाए लक्खणेण य, सहिओ पविसरइ भवणं तं ॥ २४ ॥ मज्झे घरस्स पेच्छइ, भवणं पउमप्पभस्स रमणिज्जं । थम्भसहस्सेणं चिय, धरियं वरकणयभित्तीयं ॥ २५ ॥ खिद्भिणिमालोऊलं पलम्बलम्बूसविरइयाडोवं । नाणाविहधयचिन्धं, वरकुसुमकयच्चणविहाणं ॥ २६ ॥
तब अत्यन्त शोकसे व्याप्त शरीरवाले सुमाली, विभीषण, माल्यवन्त तथा रत्नश्रवा श्रादिको विपण्ण देखकर रामने कहा कि तुम मेरा कहना सुने। शोकका संसर्ग न करा और अपने कार्यमें मन लगायो। (११-१२) इस सारे संसारमें जिस जीवने जैसा अपना कर्म अर्जित किया होता है उसके अनुसार मुख और दुःख उसे पाना ही पड़ता है। (१३) समग्र त्रिभुवनमें जो पैदा हुआ है उसे अवश्य ही मरना पड़ता है। इस प्रकारकी संसार-स्थितिको जाननेवाले तुम शोकका परित्याग करो। (१४) शरीर क्षणभंगुर है. यौवन फूलके समान है, जीवन अस्थिर है, लक्ष्मी हाथीके कानके समान चंचल होती है और बान्धवोंका स्नेह स्वप्न जैसा होता है । (१५) इस शोकका त्याग करके तुम सब आत्महित करो और सम्पूर्ण शक्तिसे जिनवरोंके धर्म में उद्यमशील रहो । (१६)
यौवन फूलके ममा पड़ता है। इस प्रकार सुख और दुःख उसे पानी । (११-१२) इस
रामके द्वारा इस तरह मधुर वचनोंसे आश्वस्त वे सब अपने अपने घर पर गये। सुन्दर मनवाले वे बन्धुकार्यमें लग गये। (१७) उस समय विभीपणकी पत्नी महादेवी विदग्धा एक हजार युवतियों और परिवारके साथ रामके पास
आई । (१८) पैरोंमें गिरकर लक्ष्मणके साथ रामसे उसने विनती की कि हम पर अनुग्रह करके आप हमारे घरमें पधारें। (१६) जब यह बातचीत हो रही थी तब विभीपणने रामसे कहा कि हमारे घर पर पधारकर श्राप अनुग्रह करें। (२०) ऐसा कहने पर प्रियाके संग हाथीके स्कन्ध पर स्थित राम समग्र परिवार तथा समुदायमें उठे हुए जनसमूहके साथ चले। (२१) वाद्योंकी ध्वनिके साथ ऊपर उठे हुए ध्वजचिह्नवाले विद्याधर हाथी, घोड़े एवं रथ तथा यान-विमान पर आरूढ़ हो राजमार्गसे चले । (२२) मन्दराचलके शिखरके समान उन्नत, चमकते हुए और सुन्दर युवतियोंके गाने-बजाने के साथ नित्य किये जानेवाले मंगलसे व्याप्त विभीषणके घर पर वे पहुँचे। (२३) विभीषण द्वारा रत्नोंके अर्घ्य आदिसे सम्मानित वे राम, सीता और लक्ष्मणके साथ उस भवनमें प्रविष्ट हुए। (२४) भवनके बीच उन्होंने हजार खम्भों द्वारा धारण किया हुआ और सोनेकी दीवारवाला पद्मप्रभस्वामीका सुन्दर मन्दिर देखा । (२५) छोटे-छोटे घुघरूकी मालाओंसे युक्त, लटकते हुए लम्बूषसे शोभित, नानाविध ध्वजाओंसे चिह्नित और उत्तम पुष्पोंसे अर्चन विधि जिसमें की गई है ऐसा वह मन्दिर था। (२६)
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