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८२. २६]
८२. भुवणालंकारहस्थिपुव्वभवाणुकित्तणपव्वं पढमो गिहवासीणं, सायारोऽणेयपज्जवो धम्मो । होइ निरायारो पुण, निग्गन्थाणं जइवराणं ॥ १२ ॥ लोए अणाइनिहणे, एवं अन्नाणमोहिया जीवा । आणुहोन्ति कुजोणिगया, दुक्खं संसारकन्तारे ॥ १३ ॥ धम्मो परभवबन्धू, ताणं सरणं च होइ जीवस्स । धम्मो सुहाण मूलं, धम्मो कामंदुहा घेणू ॥ १४ ॥ सयलम्मि वि तेलोक्के, नंदवं उत्तमं महग्धं च । तं सर्व धम्मफलं, लभइ नरो उत्तमतवेणं ॥ १५ ॥ जिणवरविहिए मग्गे, धम्म काऊण निच्छियं पुरिसा । उम्मुक्ककम्मकलुसा, जन्ति सिवं सासयं ठाणं ॥ १६ ॥ एयन्तरंमि पुच्छइ, साहू लच्छीहरो पणमिऊणं । साहेहि गओ खुभिओ, किह पुणरवि उवसम पत्तो ॥ १७ ॥ अह देसभूसणमुणी, भणइ गओ अइबलेण संखुभिओ । संभरिऊण परभवं, पुणरवि सोमत्तणं पत्तो ॥ १८ ॥ आसि पुरा इह नयरे, नाभी भज्जा य तस्स मरुदेवी । तीए गन्भमि जिणो, उप्पन्नो सयलजगनाहो ॥ १९ ॥ सुर-असुरनमियचलणो, रज्जं दाऊण जेट्टपुत्तस्स । चउहि सहस्सेहि समं, पबइओ नरवरिन्दाणं ॥ २० ॥ अह सो वाससहस्सं, ठिओ य पडिमाएँ जिणवरो धीरो । जत्थुद्देसंमि फुडं, भणइ जणो अज वि पयागं ॥ २१ ॥ जे ते सामियभत्ता, तेण समं दिक्खिया नरवरिन्दा । दुस्सहपरिस्सहे हिं, छम्मासब्भन्तरे भग्गा ॥ २२ ॥ असण-तिसाएँ किलन्ता, सच्छन्दवया कुधम्मधम्मसु । जाया वकलधारी, तरुफल-मूलासिणो मूढा ॥ २३ ॥ अह उप्पन्ने नाणे, जिणस्स मरिई तओ य निक्खन्तो । सामण्णा पडिभग्गो, पारिवजं पवत्तेइ ॥ २४ ॥ अह सुप्पभस्स तइया, पुत्ता पल्हायणाएँ देवीए । चन्दोदय सूरोदय, पवइया जिणवरेण समं ॥ २५ ॥ भग्गा सामण्णाओ, सीसा मारिजिनामधेयस्स । होऊणं कालगया, भमिया संसारकन्तारे ॥ २६ ॥
(११) अनेक भेदोंसे युक्त प्रथम सागार धर्म गृहस्थोंका होता है और निर्ग्रन्थ यतिवरोंका अनगार धर्म होता है। (१२) इस तरह अनादि-अनन्त लोकमें अज्ञानसे मोहित जोव कुयोनियों में उत्पन्न होते हैं और संसाररूपी वनमें दुःख अनुभव करते हैं। (१३) धर्म जीवके लिए परभवमें बन्धुतुल्य, त्राणरूपी एवं शरणरूप होता है। धर्म सुखोंका मूल है। धर्म कामदुघा गाय है। (१४) समग्र त्रिभुवनमें जो उत्तम और महँगा द्रव्य है वह सब धर्मका फल है और उत्तम तपसे मनुष्य वह पाता है। (१५) जिनवरविहित मार्गमें धर्म करनेसे मनुष्य कर्मके कालुष्यसे उन्मुक्त होकर अवश्य ही शिव और शाश्वत स्थान मोक्षमें जाते हैं। (१६)
तब प्रणाम करके लक्ष्मणने साधुसे पूछा कि हाथी क्षुब्ध क्यों हुआ था और पुनः शान्त भी क्यों हो गया इसके बारेमें आप कहें। (१७) इसपर देवभूषण मुनिने कहा कि अतिबलसे हाथी संक्षुब्ध हुआ था और पूर्वभवको याद करके वह उपशान्त भी हो गया। (१८)
पूर्वकालमें इस नगरमें नाभि राजा रहते थे। उनकी भार्या मरुदेवी थी। उनसे समग्र जगतके स्वामी जिनेश्वरका जन्म हुआ। (१६) सुर और असुर जिनके चरणोंमें नमस्कार करते हैं ऐसे उन ऋषभजिनने ज्येष्ठ पुत्र भरतको राज्य देकर चार हज़ार राजाओंके साथ दीक्षा ली। (२०) वे धीर जिनवर एक हजार वर्ष तक कायोत्सर्गमें जिस प्रदेशमें स्थित रहे, उसे लोग आज भी प्रयाग कहते हैं। (-१) जिन स्वामिभक्त राजाओंने उनके साथ दीक्षा ली थी वे छः महीनोंमें ही दुस्सह परीषहोंसे पराजित हो गये । (२२) भूख और प्याससे पीड़ित वे मूढ़ कुधर्मको धर्म मानकर स्वच्छन्द-व्रती, वल्कलधारी और वृक्षोंके फल-मूल खाने लगे। (२३) जिनेश्वरको ज्ञान उत्पन्न होने पर मरीचि श्रामण्यका भंग करके निकल गया। उसने परिव्राजक धर्मका प्रवर्तन किया। (२४) उस सयय सुप्रभकी प्रह लादना नामकी रानीसे उत्पन्न चन्द्रोदय और सूर्योदय नामके पुत्रोंने जिनवरके पास दीक्षा ली। (२५) श्रामण्यसे भग्न वे मरीचि नामके परिव्राजकके शिष्य हुये। मरने पर वे संसार-कान्तारमें भ्रमण करने लगे। (२६)
१. नरो जिणवरतवेणं-मु०। २. मिरिई-प्रत्यः ।
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