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८२. भुवरणालंकारह स्थिपुव्व भवाणुकित्तणपव्वं
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अह सो नरवइपुत्तो, निययसरीरे वि ववगयसिणेहो । छट्टट्टमाइए, पुणो वि भावेइ अप्पाणं ॥ चउसट्टिसहस्साईं, वरिसाण अकम्पिओ तवं काउं । कालगओ उववन्नो देवो बम्भुत्तरे कप्पे जो सो पण सो घणओ, भमिउं नाणाविहासु नोणीसु । जम्बूदक्खिणभरहे, पोयणनयरे धणसमिद्धे ॥ सोअंग्गिहो नामेण बम्भणो तस्स बम्भणीगन्भे । केम्माणिलेरिओ सो उववण्णो मिउमई नामं ॥ अविणय - जूयाभिरओ, बहुविहअवराह कारगो दुट्टो । निद्धाडिओ धराओ, पियरेणुवलम्भभीएणं ॥ दोकप्पडपरिहाणो, हिण्डन्तो मेइणी चिरं कालं । एक्कम्मि घरे सलिलं मग्गइ तहाकिलन्तो सो ॥ तो बम्भणीऍ उदयं, दिन्नं चिय तस्स सीयलं सुरहिं । जाओ पसन्नहियओ, पुच्छइ तं मिउमई विप्पो ॥ दहूण मए सहसा, केण व कज्जेण रुयसि सावित्ती! । तीए वि य सो भणिओ, मज्झ वि वयणं निसामेहि ॥ ! तुमे अणुसरसो, मज्झ सुओ निग्गओ नियघराओ । नइ कह वि भमन्तेणं, दिट्टो तो मे परिकहेहि ॥ भणिया य मिउमई णं, अम्मो ! मा रुयसु हवसु परितुट्टा । चिरलवखगो भमेडं, तुज्झ सुओ आगओ सो हं ॥ सोअग्गमुहस्स पिया, पियमुत्तसमागमे नणियतोसा । पण्हुयपओहरा सा, कुणइ तओ संगमाणन्दं ॥ सबकलागम कुसलो, धुत्ताण य मत्थयट्ठिओ धीरो । जाओवभोगसेवी, जूए अवरानिओ निययं ॥ तस्स उ वसन्त अमरा, गणिया नामेण रूवसंपन्ना । बीया य हवइ रमणा, इट्टा कन्ता मिउमइस्स ॥ ओ बहस, दारिद्दस्स उ विमोइओ तेणं । माया य कुण्डलौइसु, विभूसिया पाविया रिद्धी एतो ससङ्कनयरे, रोयहरं चोरियागओ सन्तो । अह नन्दिवद्धणनिवं, जंपतं मिउमई सुइ ॥
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हुई और उन्होंने यथाशक्ति नियम ग्रहण किये। (७४) वह राजपुत्र अपने शरीर में भी आसक्ति न रखकर बेला, तेला आदि तपसे अपनी आत्माको भावित करता था । (७५) चौसठ हज़ार वर्ष तक अकम्पित भावसे तप करके वह मर गया और ब्रह्मोत्तर कल्प में देव रूपसे उत्पन्न हुआ । (७६)
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जो धनद था वह भी कर्म वायुसे प्रेरित होकर नानाविध योनियों में भ्रमण करके जम्बूद्वीपके दक्षिण-भरत क्षेत्र में आये हुए और धनसे समृद्ध पोतनपुर में शोकाभिमुख नामक ब्राह्मणकी पत्नीके गर्भ से मृदुमतिके नामसे पैदा हुआ। (७७-७८) विनीत, द्यूतमें रत और अनेकविध अपराध करनेवाला वह दुष्ट लोगोंके उलहनेसे डरे हुए पिताके द्वारा घरमेंसे निकाल दिया गया (७) दो कपड़े पहने हुए उसने चिर काल तक पृथ्वी पर घूम कर तृष्णासे पीड़ित हो एक घरमें पानी माँगा । (८०) तब ब्राह्मणीने उसे शीतल और सुगन्धित पानी दिया। वह मन में प्रसन्न हुआ । मृदुमति ब्राह्मणने उससे पूछा कि, हे सावित्री ! मुझे देखकर तुम क्यों रोने लगी ? उसने भी कहा कि मेरा भी कहना सुनो । (८१-८२) भद्र! तुम्हारे जैसा ही मेरा पुत्र अपने घरसे चला गया है । यदि घूमते हुए, तुम कहीं पर उसे देखो तो मुझसे कहना । (८३) मृदुमतिने कहा कि माँ ! तुम मत रो। तुम आनन्दित हो । चिरकालके पश्चात् दिखाई पड़नेवाला वह में तुम्हारा पुत्र घूमता घूमता आ पहुँचा हूँ। (८४) शोकाभिमुख की पत्नी प्रिय पुत्रके आगमनसे आनन्दित हुई। जिसके स्तनोंमें से दूध वह रहा है ऐसी उसने तब मिलनका आनन्द मनाया । (८५) सब कलाओं और शास्त्रों में पारंगत, धूर्तोंके भी मस्तक पर स्थित अर्थात् धूर्त शिरोमणि, धीर और सभी प्रकारके उपभोगका सेवन करनेवाला वह जूएमें नियमतः अपराजित रहता था । ( ८६) उस मृदुमतिकी एक वसन्तामरा नामकी रूपसम्पन्न गणिका तथा दूसरी रमणा नामकी इष्ट पत्नी थी । (८७) उसने भाइयोंके साथ पिताको दारिद्र्यमें से मुक्त किया । कुण्डल आदिसे विभूषित माताने ऋद्धि प्राप्त की । (८८)
एक बार शशांकनगर में राजमहल में चोरी करनेके लिए गये हुए मृदुमतिने नन्दिवर्धन राजा को ऐसा कहते सुना कि, हे कृशोदरी ! मुनियोंमें श्रेष्ठ ऐसे चन्द्रमुख के पास आज मैंने शिवसुखका फल देनेवाला, नियतबन्धु और अत्यन्त गुणशाली १. सउणग्गिं० मु० इस पाठका अनुसरण पद्मचरित में है ८५. ११९ । २. कम्माणुलेचिओ सो उप्पन्नो मि० मु० । ३. सउणग्गि० मु० । ४. राओव० मु० । ५. ०लाई, वि० मु० । ६. रायगिहे चोरियंगमी प्रत्य० ।
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