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८२. भुवणालंकारहत्थिपुव्वभवाणुकित्तणपव्यं
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ते सुंसुमारमच्छा, धीवरपुरिसेहि जालपडिबद्धा । आयडिऊण वहिया, बहुहा संमया समुपपन्ना नो आसि संसुमारो, सो य विणोओ त्ति नामओ विप्पो । इयरो तस्स कणिट्टो, रमणो रायग्गहे विप्पो मुक्खत्तणेण रमणो, निबिण्णो निग्गओ य वेयत्थी । लद्धण गुरुं सिक्खइ, सङ्गोवङ्गे तहिं वेए ॥ पुणरवि मगहपुरं सो, एक्कोयर दरिसणुस्सुओ रमणो । संपत्तो नक्खहरे, निसासु तत्थालयं कुणइ ॥ तत्थ विणोयस्स पिया, असोयदत्तस्स दिन्नसंकेया । तं चैव नाखनिलयं, साहा नामेण संपत्ता ॥ रमणो तीऍ समाणं, गहिओ च्चिय दण्डवासियनरेहिं । ताव य ताण संयासं, गओ विणोओ असिं घेत्तु ॥ सब्भावमन्तणं सो, सोउं महिलाऍ कारणे रुट्टो । घाएइ विणोओ तं, रमणं खग्गेण स्यणिम्मि ॥ गेहं गओ विणोओ, सययं महिलाऍ रहमुहं भोत्तु । कालगओ संसारं, परिहिण्डइ दुक्खसंवाहं ॥ अह ते विणोय- रमणा, उप्पन्ना महिसया सम्मेहिं । नाया य अच्छभल्ला, निच्चक्खू वणदवे दड्ढा ॥ अह ते वाहजुवाणा, नाया हरिणा तओ य सारङ्गा । संतासिएण रण्णे, मुक्का नियएण जूहेणं ॥ अह नरवई सयंभू, विमलनिणं वन्दिउं पडिनियत्तो । पेच्छइ य हरिणए ते, निययघरं नेइ परितुट्टो ॥ पेच्छन्ति वराहारं दिज्जन्तं मुणिवराण ते हरिणा । जाया पसन्नहियया, नरवइभवणे धि पत्ता ॥ आउक्खए समाहिं, लडूण तओ सुरा समुप्पन्ना । चविया पुणो वि तिरिया, भमन्ति विविधासु जोणीसु ॥ कह कह व माणुसतं, लद्भूण य सो विणोयसारङ्गो । बत्तीसकोडिसामी, जाओ घणओ त्ति कम्पिल्ले ॥ रमणजीओ सारङ्गो, संसारं हिण्डिऊणऽणेगविहं । कम्पिल्ले धणयसुओ, उप्पन्नो भूसणो नामं पुत्तसिणेहेण पुणो, सबं धणएण तत्थ वरभवणे । देहुवगरणं विविहं, कयं च तस्सेव सन्निहियं ॥
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बहुधा एक साथ उत्पन्न हुए । (४३) जो सुंसुमार था वह राजगृह में विनोद नामका ब्राह्मण और दूसरा उसका छोटा भाई रमण ब्राह्मण हुआ । (४४) मूर्खता के कारण निर्विण्ण रमण वेदार्थी होकर निकल पड़ा । गुरुको पाकर उसने वहाँ सांगोपांग वेदोंका अभ्यास किया । (४५) सहोदर भाईके दर्शन के लिए उत्सुक वह रमण पुनः राजगृह गया और रातके समय यक्षके मन्दिरमें निवास किया । (४६) वहाँ विनोदकी प्रिया और अशोकदत्तको जिसने संकेत दे रखा था ऐसी शाखा नामकी स्त्री उसी यक्षमन्दिर में आई । (४७) कोतवाल के आदमियोंने उसके साथ रमणको पकड़ा । उस समय उनके पास विनोद तलवार लेकर गया । (४८) वस्तुतः उनके बीच संकेत हुआ है ऐसा सुनकर पत्नीके कारण रुष्ट विनोदने रातके समय उस रमणको तलवार से मारडाला । ( ४६ ) विनोद घर लौट आया। अपनी स्त्रीके साथ रतिसुखका अनुभव करके मरने पर दुःखसे व्याप्त संसारमें भटकने लगा । (५०)
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वे विनोद और रमण अपने कर्मों की वजहसे भैंसे हुए । उसके पश्चात् अन्धे भालू होकर दावानलमें जल गये । (५१) उसके बाद दो व्याध युवक हुए । तब हरिण हुए। उसके बाद सारंग (चितकबरे हरिण ) हुए। अपने यूथके त्राससे वे वनमें अलग पड़े रहते । (५२) उधर राजा स्वयम्भू विमल जिनेश्वरको वन्दन करके लौट रहा था। उसने उन हरिणों को देखा और प्रसन्न होकर अपने घर पर लाया । (५३) मुनिवरों को उत्तम आहारका दिया जाता दान उन हरिणोंने देखा । वे हृदय में प्रसन्न हुए । इससे राजभवनमें उन्हें धीरज बँधी । (५४) आयुके क्षयके समय समाधि पाकर वे देव रूपसे उत्पन्न हुए। वहाँसे च्युत होनेपर तिर्यंच हुए। इस तरह विविध योनियों में वे भ्रमण करने लगे । (५५) किसी तरह मनुष्य जन्म प्राप्त करके वह विनोद सारंग काम्पिल्यपुर में धनद नामका बत्तीस करोड़का स्वामी हुआ । (५६) रमणका जीव सारंग भी संसार में अनेक प्रकारसे परिभ्रमण करके काम्पिल्यमें भूषण नामसे धनदके पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुआ । (५७) पुत्रके स्नेहसे धनदने उस उत्तम भवनमें विविध प्रकारके सब देहोपकरण उसके लिए जमा किये । (५८) १. समुया मु० इसी पाठका अनुसरण पद्मचरित में है पर्व ८५ श्लोक ६९ । २. सयासे प्रत्य० । ३. ० मन्तरेणं सो सोउं सहाकारणेत्य प्र० । ४. रयणम्मि प्रत्य० ।
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