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पउमचारय
[७७.६१चारयभडेहि रत्ति, सहसा वित्तासिओ पलायन्तो । भीमोरगेण दट्ठो, सीहेन्दू पोयणासन्ने ॥ ९१ ॥ मुच्छाविहलसरीरं, खन्धे काऊण दइययं मुद्धा । संपत्ता विलवन्ती, जत्थ मओ अच्छइ समणो ॥ ९२॥ पडिमं ठियस्स मुणिणो, तस्साऽऽसन्ने पियं पमोत्तणं । समणस्स फुसइ चलणे, पुणरवि दइयं परामुसइ ॥९३॥ मुणिपायपसाएणं, सोहेन्दू जीविओ महुच्छाहो । जाओ पियाएँ समयं, पणमइ तं सावं तुट्ठो ॥ ९४ ॥ अह उग्गयम्मि सूरे, समत्तनियम मुणी विणयदत्तो । अहिवन्दिऊण पुच्छइ, सीहेन्दु महिलियासहियं ॥ ९५ ॥ गन्तूण सावओ सो, कहेइ सिरिवद्धियस्स संदेसं । सबं फुडवियडत्थं, जं भणियं सीहचन्देणं ॥ ९६ ॥ तं सोऊणं रुट्ठो, सहसा सिरिवद्धिओ उ सन्नद्धो । महिलाएँ उवसमं सो, नीओ मुणिपायमलम्मि || ९७ ॥ तं वदिऊण समणं, समयं भज्जाएँ तत्थ परितुद्यो । संभासेइ सिणेहं, सालं सिरिवद्धिओ पयओ ॥ ९८ ।। काऊण नरवरिन्दो, पियाइ बन्धूसमागमाणन्दं । निययं तत्थ परभवं, पुच्छइ य मयं महासमणं ॥ ९९ ॥ अह तस्स साहइ मुणी, भद्दायरिओ त्ति नाम सोभपुरे । ते वन्दओ नरिन्दो, जाइ सुमालो सह जणेणं ॥१०॥ अह तत्थ कुट्ठवाही, महिला मुणिवन्दणाएँ अल्लीणा । अग्घायइ दुग्गन्धं, तीए देहुब्भवं राया ॥ १०१ ॥ गेहं गए नरिन्दे, भद्दायरियस्स पायमूलम्मि । सा कुट्टिणी वयाई, घेत्तण सुरालयं पत्ता ॥ १०२ ॥ तत्तो सा चविऊणं, जाया इह सीलरिद्धिसंपन्ना । रूवगुणजोबणधरी, जिणवरधम्मुज्जयमईया ॥ १०३ ॥ अह सो सुमालराया, रज्जं दाऊण जेट्टपुत्तस्स । कुणइ च्चिय संतोसं, अट्टहिं गामेहिं दढचित्तो ॥ १०४॥ अट्ठहिं गामेहिं नियो, संतुट्टो सावयत्तणगुणेणं । देवो होऊण चुओ, जाओ सिरिवद्धिओ तुहयं ॥ १०५ ॥ जणणी' तुज्झ नरवइ !, कहेमि अह पुत्वजम्मसंबन्धं । एको चिय वइदेसो, पविसइ गामं छुहासत्तो ॥ १०६ ॥
द्वारा रातमें सहसा पीड़ित होने पर भागते हुए उस सिंहेन्दुको पोतनपुरके समीप भयंकर सर्पने काट लिया। (६१) मासे विह्वल शरीरवाले प्रियतमको कन्धे पर उठाकर रोती हुई वह स्त्री जहाँ मृग नामका श्रमण था वहाँ गई । (१२) प्रतिमामें स्थित मुनिके समीप प्रियको रखकर उसने श्रमणके चरण छूए। बाद में पति को छूआ । (६३) मुनिके चरणोंके प्रसादसे जीवित सिंहेन्दु अत्यन्त उत्साहित हो गया। थानन्दित उसने प्रियाके साथ उस साधुको प्रणाम किया । (९४) सूर्योदय होने पर समाप्त नियमवाले मुनिको वन्दन करके विनयदत्तने स्त्रीके साथ आये हुए सिंहेन्दुसे पूछा । (६५) उस भावकने जाकर सिहेन्दुने जो सन्देश कहा था वह सब स्कुट और विराद रूपसे श्रीवधितको कह सुनाया । (६६) उसे सुनकर रुष्ट श्रीवर्धित एकदम तैयार हो गया। पत्नी द्वारा शान्त किया गया वह मुनिके चरणों में उपस्थित हुआ। (६७) पत्नी के साथ मुनिको प्रणाम करके आनन्दमें आया हुआ श्रीवर्धित सालेके साथ स्नेहपूर्वक बातचीत करने लगा। (८) राजाने प्रिया और उसके भाईके मिलनका अानन्द मनाकर मय महाश्रमणसे अपने परभवके वारेमें पूछा । (६६) इस पर उसे मुनिने कहा कि
शोभपुरमें भद्राचार्य नामके एक मुनि थे। लोगोंके साथ सुमाल राज उन्हें वन्दन करनेके लिए आया। (१००) वहाँ कोढ़वाली एक स्त्री भी मुनिके वन्दनके लिये आई थी। उसके शरीरसे उत्पन्न दुर्गन्ध राजाने Vघी। (१०१) राजाके घर पर जानेके बाद वह कुष्टिनी भद्राचार्यके चरणों में व्रत अंगीकार करके स्वर्गमें गई । (१०२) वहाँ से च्युत होने पर शील एवं ऋद्धिसे सम्पन्न, रूप, गुण और यौवन धारण करनेवाली तथा जिनवरके धर्ममें उद्यत बुद्धिवाली वह हुई । (१०३) इधर दृढ़चित्त वह सुमाल राजा भी बड़े लड़केको राज्य देकर आठ गाँवोंसे ही सन्तोष करने लगा। (१०४) आठ गाँवसे सन्तुष्ट राजा श्रावकपनेके गुणसे देव हुआ। च्युत होने पर तुम श्रीवर्धित हुए हो । (१०५)
हे राजन् ! अब मैं तुम्हारी माताके पूर्वजन्मका वृत्तान्त कहता हूँ। कोई एक परदेशी भूखसे पीड़ित हो गाँवमें प्रविष्ट हुआ। (१०६) भोजनगृहमें आहार न पाकर क्रोधसे प्रज्वलित उसने कहा कि सारे गाँवको मैं जला डालता हूँ। इसके
१. मुर्णि-प्रत्य० ।
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