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८०.२६] ८०. भुवणालंकारहत्थिसंखोभणपव्वं
४४ जिणवरभवणाणि तहिं रामेणं कारियाणि बहुयाणि । हरिसेणेण व तइया, भवियजणाणंदयकराई ॥ १५ ॥ गाम-पुर-खेड-कबड-नयरी सा पट्टणाण मज्झत्था । इन्दपुरी व कया सा, साएया रामदेवेणं ॥ १६ ॥ सबो जणो सुरूवो, सबोधण-धण्ण-रयणसंपुण्णो । सबो करभररहिओ, सबो दाणुज्जओ निच्च ॥ १७ ॥ एको स्थ महादोसो, दीसइ फुडपायडो जणवयस्स । परनिन्दासत्तमणो न चयइ निययं चिय सहावं ॥ १८ ॥ लङ्काहिवेण जा वि य, हरिऊणं रामिया धुवं सीया । सा कह रामेण पुणो, ववगयलज्जेण आणीया ॥ १९ ॥ खत्तियकुलजायाणं, पुरिसाणं माणगबियमईणं । लोगे दुगुंछणीयं, कम्मं न य एरिसं जुत्तं ॥ २० ॥ एयन्तरम्मि भरहो, तम्मि य गन्धवनट्टगीएणं । न लहइ रई महप्पा, विसएसु विरत्तगयभावो ॥ २१ ॥ संसारभउबिग्गो, भरहो परिचिन्तिऊणमाढत्तो । विसयासत्तेण मया, न कओ धम्मो सुहनिवासो ॥ २२ ।। दुक्खेहि माणुसत्तं, लद्धं जलबुब्बुओवमं चवलं । गयकण्णसमा लच्छी, कुसुमसमं जोवणं हवइ ॥ २३ ॥ किंपागफलसरिच्छा, भोगा जीयं च सुविणपरितुल्लं । पक्खिसमागमसरिसा, बन्धवनेहा अइदुरन्ता ॥ २४ ॥ धन्ना हु तायमाई, जे सबे उज्झिऊण रजाई । उसभसिरिदेसियत्थं, सुगइपहं ते समोइण्णा ॥ २५ ॥ धण्णा ते बालमुणी, बालत्तणयम्मि गहियसामण्णा । न य नाओ पेम्मरसो, सज्झाए वावडमणेहिं ॥ २६ ॥ भरहाइमहापुरिसा, धन्ना ते जे सिरिं पयहिऊणं । निग्गन्था पवइया, पत्ता सिवसासयं सोक्खं ॥ २७ ॥ तरुणत्तणम्मि धर्म, जइ हं न करेमि सिद्धिसुहगमणं । गहिओ जराऍ पच्छा, डज्झिस्सं सोगअग्गीणं ॥ २८ ॥
गलगण्डसमाणेसुं, सरीरछीरन्तरावहन्तेसु । थणफोडएसु का वि हु, हवइ रई, मंसपिण्डेसु ? ॥ २९ ॥ बहुत-से सुन्दर जिनमन्दिर बनवाये । (१५) ग्राम, पुर, खेट (मिट्टीकी चहारदीवारीवाला नगर) कब्बड़ ( कुत्सित नगर), नगरी और पत्तनों के बीच में आई हुई वह साकेतनगरी रामने इन्द्रपुरी जैसी बनाई। (१६) वहाँ सभी लोग सुन्दर थे, सभी धन, धान्य एवं रत्नोंसे परेपूर्ण थे, सभी करके भारसे रहित थे और सभी नित्य दानमें उद्यत रहते थे। (१७) किन्तु लोगोंमें एक बड़ा भारी दोष स्पष्ट दिखाई पड़ता था। दूसरेकी निन्दामें आसक्त मनवाले वे अपना स्वभाव नहीं छोड़ते थे। (१८) वे कहते थे कि लंकाधिपने अपहरण करके जिस सीताके साथ रमण किया था उसे निर्लज्ज राम पुनः क्यों लाये ? (१६) क्षत्रियकुलमें उत्पन्न और अभिमानसे गर्वित बुद्धिवाले पुरुषोंके लिये लोकमें ऐसा कुत्सित कर्म करन उपयुक्त नहीं है। (२०)
उधर विषयोंमें वैराग्यभाववाला महात्मा भरत गान्धर्व, नृत्य और गीत द्वारा उन विषयों में श्रासक्ति नहीं रखता था। (२१) संसारके भयसे उ.द्वग्न भरत सोचने लगा कि विपयोंमें आसक्त मैंने सुखका धाम रूप धर्म नहीं किया। (२२) मुश्किलसे जलके बुलबुलेके समान चपल मनुष्यजन्म प्राप्त किया है। हाथीके कानके समान अस्थिर लक्ष्मी है और यौवन फलके समान होता है । (२३) किंपाक फलके जैसे वे स्वादमें अच्छे, परंतु परिणाममें विनाशक भोग होते हैं। जीवन स्वप्न सदृश है और बान्धवस्नेह पक्षियोंके मेलेके जैसा क्षणिक और अत्यन्त खराब विपाकवाला होता है। (२४) माता और पिता धन्य हैं जिन्होंने राज्य आदे सर्वका परित्याग करके श्री ऋषभदेव भगवान् द्वारा उपदिष्ट सुगतिके मार्ग पर पदार्पण किया है। (२५) वे बालमुनि धन्य हैं जो बचपनमें ही श्रमणत्व अंगीकार करके स्वाध्यायमें मन लगनेसे प्रेमरसको नहीं जानते । (२६) वे भरत आ दे महापुरुष धन्य हैं जिन्होंने लक्ष्मीका त्याग करके निर्ग्रन्थ दीक्षा ली और शिव एवं शाश्वत सुख प्राप्त किया। २७) यदि मैं तरुण अवस्थामें ही सिद्धिका सुख देनेवाले धर्मका आचरण नहीं करूँगा तो बादमें बुढ़ापेसे जकड़े जाने पर शोकरूपी अग्रसे जलता रहूँगा । (२८) शरीरके दूधको अपने भीतर धारण करनेवाले, गलगण्डके समान स्तनरूपी फोड़े जैसे मांस पिण्डोंमें क्या प्रेम हो सकता है ? (२६) पानके रससे रंगे और दाँतरूपी कीटकोंसे भरे हुये
१. जणाणंदियकराई प्रत्य० । .जणाणंदियवराई मु०। २. धण-कणय-रयणपरिपुण्णो मु०। ३. किह मु.। ४. •ण. आढ• प्रत्य० । ५. •न्तहावह. प्रत्य।
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