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पउमचरियं [ ८०.३०० तम्बोलरसालिद्धे, भरिए च्चिय दन्तक्रीडयाण मुहे । केरिसिया हवइ रई, चुम्बिज्जन्ते अहरचम्मे ? ॥ ३० ॥ अन्तो कयारभरिए, बाहिरमट्टे सभावदुग्गन्धे । को नाम करेज्ज रई, जुवइसरीरे नरो मूढो ? ॥ ३१ ॥ संगीयए य रुण्णे, नत्थि विसेसो बुहेहिं निद्दिट्टो । उम्मत्तयसमसरिसे, को व गुणो नच्चियबम्मि ? ॥ ३२ ॥ सुरभोगे न तित्तो, 'नीवो पवरे विमाणवासम्मि । सो किहँ अवियण्हमणो, माणुसभोगेसु तिप्पिहिइ ॥ भरस्स एव दिया, बहवो वच्चन्ति चिन्तयन्तस्स । बलविरियसमत्थस्स वि, सीहस्स व पञ्जरत्थस्स ॥ एवं संविग्गमणो, भरहो चिय कैइगईऍ परिमुणिउं । भणिऊण समादत्तो, पउमो महुरेहिं वयणेहिं ॥ अम्ह पियरेण जो वि हु, भरह ! तुमं ठाविओ महारज्जे । तं भुञ्जसु निस्सेसं, वसुहं तिसमुद्दपेरन्तं ॥ एयं सुदरिणं तुह, वसे य विज्जाहराहिवा सबे । अहह्यं धरेमि छत्तं मन्ती वि य लक्खणो निययं ॥ होइ तु सत्तहणो, चामरधारो भडा य सन्निहिया । बन्धव करेहि रज्जं चिरकालं नाइओ सि मया निणिऊण रक्खसवई इहागओ दरिसणुस्सुओ तुज्झें । अम्हेहि समं भोगे, भोत्तूणं पबइज्जासु ॥ एव भणन्तं परमं, भरहो पडिभणइ ताव निसुणेहि । इच्छामि देव ! मोतु, बहुदुक्खकरिं नरिन्दसिरिं एव भणियं सुणेउ, अंसुनलाउण्णलोयणा सुहडा । जंपन्ति विम्हियमणा, देव निसामेह वयणऽहं ॥ तायरस कुणसुवणं, पाल लोयं सुहं अणुहवन्तो । पच्छा तुमं महानस !, गिण्हेज्जसु निणमए दिक्खं ॥ भाइ भरहो नरिन्दो, पिउवयंणं पालियं जहावत्तं । परिवालिओ य लोगो, भोगविही माणिया सबा ॥ दिन्नं च महादाणं, साहुजणो तप्पिओ नहिच्छाए । ताएण ववसियं नं, कम्मं तमहं पि ववसामि ॥
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मुखमें तथा चुम्बन किए जाते होंठोंके चमड़ेमें कैसे प्रीति हो सकती है ? (३०) भीतरसे मैलेसे भरे हुये किन्तु बाहर शुद्ध ऐसे स्वभावसे दुर्गन्धयुक्त युवतियोंके शरीरमें कौन मूर्ख मनुष्य प्रेम कर सकता है ? (३१) बुद्धिमान पुरुषोंने संगीत में और रोनेमें अन्तर नहीं है ऐसा कहा है । उन्मत्त व्यक्तिके जैसे नर्तनमें कौन-सा गुण है ? (३२) जो जीव उत्तम विमानमें रहकर देवोंके भोगोंसे तृप्त न हुआ वह सतृष्ण मनवाला मनुष्यलोक में कैसे तृप्त सकता है ? (३३) पिंजरे में रहे हुये सिंहके जैसे बल एवं वीर्य में समर्थ भी भरतके बहुत-से दिन इस तरह सोचने में बीते । (३४)
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इस प्रकार मनमें संवेग धारण करनेवाले भरतको कैकेईने जान लिया। रामने भी मधुर वचनोंसे उसे कहा कि हे भरत ! हमारे पिताने तुम्हें महाराज्य पर स्थापित किया है, अतः तीन ओर समुद्र तक फैली हुई समग्र पृथ्वीका म उपभोग करो। (३५-३६) यह सुदर्शन चक्र और सब विद्याधर तुम्हारे वशमें हैं। मैं छत्र धरता हूँ और लक्ष्मण भी मंत्री है । ( ३७ ) शत्रुघ्न तुम्हारा चामरधर है । सुभट पासमें हैं । अतः हे भाई! तुम चिरकाल तक राज्य करो, यही मेरी याचना है । (३८) राक्षसपतिको जीतकर तुम्हारे दर्शनके लिए उत्सुक मैं यहाँ आया हूँ । हमारे साथ भोगोंका उपभोग कर तुम प्रवज्या लेना । (३६)
तब ऐसा कहते हुए रामसे भरतने कहा कि हे देव ! आप सुनें । बहुत दुःखकर राजलक्ष्मीको में छोड़ना चाहता हूँ। (४०) ऐसा कथन सुनकर आँखोंमें अश्रुजल भरकर मनमें विस्मित सुभट कहने लगे कि, देव ! हमारा कहना आप सुनें। (४१) हे महायश ! पिताके वचनका पालन करो । सुखका अनुभव करते हुए लोगों की रक्षा करो। बादमें आप जिनमतमें दीक्षा ग्रहण करना । (४२) इस पर भरत राजाने कहा कि मैंने पिताके वचनका यथार्थ पालन किया है। लोगोंकी भी रक्षा की है और सब भोग भी भोगे हैं । (४३) महादान दिया है। इच्छानुसार साधुओं को सन्तुष्ट किया है । पिताने जो कार्य किया था उसे मैं भी करता हूँ । (४४) मुझे शीघ्र अनुमति दो और विघ्न मत डालो - यही मैं तुमसे याचना करता हूँ। जो कार्य श्लाघनीय होता है वह तो मनुष्यको जिस किसी तरह से करना ही चाहिए। (४५) १. सालिते मु० । २. को णु गु० मु० 1 ३. जीवो सुरवरविमा० प्रत्य० । ४. कह प्रत्य० । ५. केईए प्रत्य• ।
६. करेह प्रत्य• । ७. निसामेहि प्रत्य० । ८. ०सु वसुहं सु० प्रत्य० । ६. ०यणं जं जहा य आणतं । परि० प्रत्य० ।
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