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पउमचरियं
[७६.६ एसा वि य कण्णरवा, महानई विमलसलिलकल्लोला । जीसे तडम्मि साहू, सुन्दरि ! पडिलाहिया य तुमे ॥ ६ ॥ एसो दीसइ सुन्दरि, वंसइरी जत्थ मुणिवरिन्दाणं । कुल-देसभूसणाणं, केवलनाणं समुप्पन्नं ॥७॥ भवणुज्जाणसमिद्धं, एयं तं कुब्बरं पिए ! नयरं । इह वसइ वालिखिल्लो, जणओ कल्लाणमालाए ॥ ८ ॥ एयं पि पेच्छ भद्दे !, दसण्णनयरं नहिं कुलिसयन्नो । राया अणन्नदिट्ठी, रूववतिपिया परिवसइ ॥९॥ तत्तो वि वइक्वन्ता, भणइ पियं जणयनन्दिणी एसा । दीसइ पुरी पहाणा, कवणा सुरनयरिसंठाणा ॥१०॥ भणिया य राहवेणं, सुन्दरि ! एसा महं हिययइट्ठा । विज्जाहरकयभूसा, साएयपुरी मणभिरामा ॥ ११ ॥ दतॄण समासन्ने, पुप्फविमाणं ससंभमो भरहो । निप्फडइ गयारूढो बलसहिओ अहिमुहं सिग्धं ॥ १२ ॥ दहण य एजन्तं, भरह भडचडगरेण पउमाभो । ठावेइ धरणिवढे, पुप्फविमाणं तओइण्णो ॥ १३ ॥ भरहो मत्तगयाओ, ओयरिङ नमइ सहरिसो सिग्धं । रामेण लक्खणेण य, अवगूढो तिबनेहेणं ॥ १४ ॥ संभासिएक्कमेक्का, पुप्फविमाप पुणो वि आरूढा । पविसन्ति कोसलं ते, विज्जाहरसुहडपरिकिण्णा ॥ १५ ॥ रह-य-तुरङ्गमेहिं, संघट्टद्वेन्तजोहनिवहेहिं । पविसन्तेहि निरुद्धं, गयणयलं महियलं नयरं ॥ १६ ॥ भेरी-मुइङ्ग-तिलिमा-काहल-सङ्खाउलाई तुराई । वज्जन्ति घणरवाई, चारणगन्धवमीसाइं॥ १७ ॥ गय-तुरयहेसिएणं. तूरनिणाएण बन्दिसद्देणं । न सुणंति एकमेक, उल्लावं कण्णवडियं पि॥१८॥ एवं महिडिजुत्ता, हलहर-नारायणा निवइमग्गे । वच्चन्ते नयरजणो आढत्तो पेच्छिउं सबो ॥ १९॥
नायरवहूहि सिग्धं, भवणगवक्खा निरन्तरा छन्ना । रेहन्ति वयणपङ्कय-सराण रुद्धा व उद्देसा ॥ २० ॥ जैसा, नानाविध वृक्ष, पुष्प एवं फलोंसे प्रचुर यह दण्डकारण्य है, जहाँसे तुम अपहृत हुई थी। (५) हे सुन्दरी! निर्मल जल और तरंगोंवाली यह कर्णरवा महानदी है जिसके तट पर तुमने साधुओंको दान दिया था। (६) हे सुन्दरी! यह वंशगिरि दिखाई पड़ता है जहाँ कुलभूषण और देशभूषण मुनियोंको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था। (७) हे प्रिये! भवनों
और उद्यानोंसे समृद्ध यह कूबरनगर है। यहाँ कल्याणमालाका पिता वालिखिल्य रहता है। (८) हे भद्रे ! इस दशार्णनगरको भी देख जहाँ सम्यग्दृष्टि राजा कुलिशयज्ञ और उसकी प्रिया रूपवती रहती है। (6) वहाँसे आगे चलने पर जनकनन्दिनी सीताने प्रियसे पूछा कि सुरनगरीके जैसी उत्तम रचनावाली यह कौनसी नगरी दिखाई देती है ? (१०) रामने कहा कि हे सुन्दरी ! यह मेरी हृदयेष्ट और विद्याधरोंके द्वारा विभूषित मनोहर नगरी साकेतपुरी है । (११)
समीपमें पुष्पक विमानको देखकर भरत आदरके साथ निकला और हाथी पर सवार होकर सेनाके साथ शीघ्र अभिमुख गया । (१२) सुभटोंके समूहके साथ भरतको आते देख रामने पुष्पक विमानको पृथ्वी पर स्थापित किया। बादमें वे उसमेंसे नीचे उतरे। (१३) मत्त हाथी परसे नीचे उतरकर शीघ्र ही भरतने हर्षके साथ प्रणाम किया। राम और लक्ष्मणने तीव्र स्नेहसे उसका आलिंगन किया । (१४) एक-दूसरेके साथ सम्भाषण करके वे पुनः पुष्पकविमान पर आरूढ़ हुए। विद्याघरसुभटोंसे घिरे हुए उन्होंने अयोध्या में प्रवेश किया। (१५) प्रवेश करते हुए रथ, हाथी और घोड़ोंसे तथा टकराकर ऊपर उठते हुए योद्धाओंके समूहोंसे नगरका आकाशतल और धरातल अवरुद्ध हो गया। (१६) चारणों और गन्धर्वोके संगीतसे युक्त बादलकी तरह आवाज करते हुए भेरी, मृदंग, तिलिमा, काहल और शंख आदि वाद्य बजने लगे। (१७) हाथियोंकी चिघाड़ और घोड़ोंकी हिनहिनाहटसे तथा बन्दीजनोंकी ध्वनिसे कानमें पड़ी हुई बातचीत भी एक-दूसरे नहीं सुनते थे। (१८)
ऐसी महान ऋद्धिसे सम्पन्न राम और लक्ष्मण जब राजमार्ग परसे जा रहे थे तब सब नगरजन उन्हें देखने लगे। (१६) नगरकी स्त्रियोंने शीघ्र ही भवनोंके गवाक्ष बीचमें जगह न रहे इस तरह ढंक दिये। मुखरूपी कमलोंसे आच्छन्न
१. एयं पिच्छसु भ-प्रत्यः। २. रूववइपिया-मुः। ३. •सहिओ सम्मुहो सिग्धं-मु०। ४. पुणो समारूढा । पविसंति कोसलाए वि. मु.। ५. सुणेइ एकमेको-मु.।
है जिसके तट पर कमलज्ञान उत्पन्न हुआ है। द) हे भने जनकनन्दिनी
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